उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘बात यह है कि मैं एक सप्ताह बम्बई में व्यतीत करके आ रहा हूं और अब यदि आपके निमन्त्रण को स्वीकार करूँ तो निस्सन्देह आधा सप्ताह और लग जायेगा। इतने दिनों तक मैं अपने कारोबार से पृथक् नहीं रह सकता।’’
‘‘इसका अर्थ तो यह हुआ कि आपको अभी तक भी मेरे कथन पर विश्वास नहीं आया। यदि आप समझ लेते कि आप वास्तव में धर्मराज युधिष्ठिर हैं, तो यह भी विचार करते कि आपके पुनः इस संसार में आने का कुछ प्रयोजन होगा और वह प्रयोजन मैं बताने में समर्थ तथा योग्य हूँ। यदि इतनी बात पर विश्वास होता तो निस्सन्देह आप मेरा निमन्त्रण स्वीकार कर लेते।’’
‘‘देखिए माणिकलालजी!’’ मैंने खाना छोड़ और अपने सामने बैठे हुए व्यक्ति को गम्भीरतापूर्वक देखते हुए कहा, ‘‘विश्वास अपील करने से उत्पन्न नहीं होता। विश्वास करने की एक प्रक्रिया है और वह अभी आपके साथ पूर्ण नहीं हुई है। यह बात हमारे परिचय के परिपक्व होने के पश्चात् ही हो सकती है।’’
माणिकलाल मुज़े से पौरिज तथा दूध मिलाकर खाते हुए कहने लगा, ‘‘एक बात कीजिए।’’
‘‘क्या?’’
‘‘आप मुझे और नोरा को अपने घर पर दावत दे दीजिए। मैं आठ मार्च को प्रातःकाल फ्रन्टियर मेल से दिल्ला आ रहा हूँ। यदि आप निमन्त्रण दें तो मैं एक दिन दे लिए दिल्ली रुक सकता हूँ।’’
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