उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
मैं अपने साथी के इस प्रस्ताव पर चकित रह गया। इस पर कुछ विचार कर मैंने कहा, ‘‘यह ठीक है। मैं आठ तारीख को प्रातःकाल फ्रन्टियर मेल पर आपको दिल्ली स्टेशन पर मिलूँगा। क्या आपके लिए किसी होटल में ठहरने का प्रबन्ध कर रखूँ? हमारे घर में तो नवविवाहित दम्पती के रहने के लिए स्थान का अभाव है।’’
‘‘इस बात की आवश्यकता नहीं होगी। मैं उसी सायंकाल हवाई जहाज से बम्बई के लिए रवाना हो जाऊँगा।’’
‘‘तो क्या हवाई जहाज से आपके लिए सीट रिज़र्व करवा दूँ?’’
‘‘आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं। मैं सब कुछ स्वयं कर लूँगा। अब बताइए ठीक रहेगा न? मेरी नोरा को आप देखेंगे तो समझ जायेंगे कि उस लड़की के लिए क्यों मुझको एथेन्स से भागना पड़ा था।’’
‘‘तो क्या बहुत सुन्दर है वह?’’
‘‘सौन्दर्य की अनुभूति अपनी-अपनी है। मैं तो उसके ओज और प्रतिभा के विषय में कहता हूँ।’’
मैंने अपनी जेब से अपना विज़िटिंग कार्ड दिखाते हुए कहा, ‘‘यह मेरा पता है किन्तु निश्चिन्त रहें, मैं आप लोगों का स्वागत स्टेशन पर करूँगा। अतः इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इस पर भी सुरक्षा की दृष्टि से रख लेना अनुपयुक्त नहीं।’’
इस प्रकार मैं अनुभव करने लगा कि इस व्यक्ति की ओर खिंचता जा रहा हूँ। ब्रेकफास्ट समाप्त हुए और हम अपने कम्पार्टमेंट में चले आये। गाड़ी खड़-खड़ करती हुई चली जा रही थी। मैं अपने विचारों में लीन बैठा था और कदाचित् वह भी कुछ अपने विषय में विचार कर रहा था।
ब्रेकफास्ट के पश्चात् हम दोनों सीट की पीठ का सहारा ले विश्राम करने लगे। एकाएक मुझको एक विचार आया और मैं पुनः सीधा हो उठा। वह मुझको उठा देख मुस्करता हुआ मेरी ओर देखने लगा। मैंने पूछा, ‘‘क्या यह आपकी नोरा भी महाभारत काल की आपकी परिचित है?’’
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