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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘सम्भव है, हो। मुझे अभी तक तो स्मरण आया नहीं। वास्तव में उन दिनों मेरा सम्पर्क कितनी ही औरतों से हुआ था। यह सम्भव है कि उनमें से यह भी कोई हो।’’

‘‘देखिये माणिकलालजी! मुझको तो महाभारत काल की कथाओं में जैसी श्री व्यास, कृष्ण द्वैपायनजी ने लिखी है, कुछ अधिक विश्वास भी नहीं। अतः अपने को उस काल के किसी व्यक्ति विशेष के होने पर भी विश्वास नहीं। मैं तो वर्तमान में ही विश्वास रखता हूँ।’’

माणिकलाल हँस पड़ा। उसके बाद वह कहने गला, ‘‘यह आपका दोष नहीं है। यह आपकी शिक्षा का दोष है। वैसे तो मैंने भी वही शिक्षा पाई थी, जो आपने पाई है। परन्तु मैंने अपनी तीस वर्ष की तपस्या से उस शिक्षा के दुष्प्रभाव को अपने मस्तिष्क से निकाल दिया है। आपके मन पर वह प्रभाव अभी तक विद्यमान है।’’

‘‘क्या प्रभाव था आपके मन पर जो अब नहीं रहा और मेरे मस्तिष्क पर अब भी विद्यमान है?’’

‘‘देखिये वैद्यजी! अंग्रेजी में पढ़ने का प्रथम प्रभाव जो विद्यार्थी के मन पर होता है, वह है यूरोपियन विद्वानों पर अटूट श्रद्धा। दूसरी बात यह है कि उनके कहे अनुसार हम अपने पूर्वजों को मूर्ख, अशिक्षित और अनृतभाषी समझने लगे हैं।’’

‘‘यह ठीक है पर वर्त्तमान में प्रचवित महाभारत पुस्तक में बहुत सी बातें मिला दी गई हैं और बहुत-सी बातें जो पीछे मिलाई गई हैं और कदाचित् जो द्वैपायनजी ने स्वयं ही लिखी हैं, पढ़ने पर असम्भव और अयुक्तिसंगत प्रतीत होती हैं, परन्तु वे ऐसी हैं नहीं।

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