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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘इस पर इतना और समझ लेना चाहिए कि उस काल की लिखने की शैली की कुछ विशेषता थी। उस शैली का ध्यान रखकर पढ़ें तो महाभारत ज्ञान और सत्य घटनाओं का अद्वितीय एक भण्डार दिखाई देने लगेगा।’’

‘‘श्रीकृष्ण द्वैपायनजी स्वयं वर्णसंकर थे। अर्थात् एक अविवाहित मल्लाह की कन्या से एक ऋषि के वीर्य से उत्पन्न हुए थे। यह ठीक था कि वे ऋषियों की संगत में रहने से तथा धर्मशास्त्र और वेदादि के अध्ययन से महाज्ञानी हो गये थे, परन्तु जीवन भर उनके मस्तिष्क पर अपने जन्म का संस्कार बना रहा था। साथ ही वे अपनी माता की सन्तान की उच्छृंखलताओं को ही तो लिख रहे थे। अतः महाभारत के लिखने में कहीं-कहीं अतिशयोक्ति अथवा अयुक्तियुक्त व्यवहार की सम्भावना भी दिखाई देती है।

‘‘एक बात और है, जो महाभारत अथवा किसी अन्य पुराण को पढ़ते समय ध्यान में रखनी चाहिए। महाभारत, रामायण तथा पुराण ग्रन्थ इतिहास नहीं हैं। ये तो तत्कालीन समाज, राष्ट्र और राज्य की व्याख्या करने के लिए लिखे गये ग्रन्थ हैं। इनमें इतिहास तो केवल पृष्ठभूमि मात्र होता है। कथाओं को तोड़ा-मोड़ा भी गया है, जिससे कि कथा लिखने का प्रयोजन स्पष्ट हो सके।’’

‘‘स्पष्ट है कि इन कथाओं को लिखने का प्रयोजन इतिहास लिखना नहीं था। प्रत्युत उस काल की अवस्था का, किसी सिद्धान्त के निरूपण के लिए प्रयास करना था’’

माणिकलाल का इतना लम्बा वक्तव्य सुनने पर भी मेरे मस्तिष्क में इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। मैं तो समझता था कि एक दुर्बल पक्ष को शिथिल युक्तियों से सिद्ध करने का यत्न किया जा रहा है। इस कारण मैंने कहा, ‘‘आपने जो कुछ कहा है वह मैं समझ नहीं सका। आप यह बताइये कि महाभारत में किसी सत्य घटना का उल्लेख है अथवा क्या शत-प्रतिशत काल्पनिक बातें ही उसमें हैं?’’

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