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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘आज से सहस्र वर्ष पूर्व मध्य एशिया में एक जाति रहती थी जिसका नाम असुर था। असुर और सुरों में भारी युद्ध होते रहते थे। यही कारण था कि दोनों जातियों में वैमनस्य बढ़ता गया। जिस समय की यह कथा है उस काल में असुरों के अधिपति थे वृषपर्वा और उनके पुरोहित शुक्राचार्य थे।’’

‘‘देवासुर-संग्रामों में असुरों की हानि कम होती थी। इसका एक बड़ा कारण यह था कि शुक्राचार्य एक संजीवनी विद्या के ज्ञाता थे, जिससे मृत व्यक्ति जीवित किये जा सकते थे। अतः जब युद्ध होता था और देवता लोग अपने दिव्यास्त्रों से असुरों का भारी संख्या में हनन करते थे, तब शुक्राचार्य वहाँ पहुँचकर अपनी विद्या द्वारा रणभूमि में मरे हुओं को जीवित कर देते थे।’’

मैं माणिकलाल की यह बात सुनकर खिलखिला कर हँस पड़ा। वह अपनी कथा बताते हुए रुक गया और विस्मय से मेरा मुख देखने लगा। मैंने कह, ‘‘माणिकलाल जी, कल्पना को निकालकर कथा बताइये।’’

‘‘तो आप समझते हैं कि मरा हुआ व्यक्ति जीवित नहीं हो सकता।’’
‘‘असम्भव है।’’

माणिकलाल ने इसका उत्तर देने के स्थान पर एक समाचार-पत्र का पन्ना निकालकर दिखा दिया। यह ‘मद्रास स्टैंडर्ड’ का एक पृष्ठ था। उसमें एक समाचार था। शीर्षक था, ‘‘लाइफ कैन बि गिवन टु डैड’’ अर्थात् मृत जीवित किये जा सकते हैं। इस शीर्षक के नीचे समाचार था–
‘रूस के वैज्ञानिक अब यह यत्न कर रहे हैं कि मृत कुत्तों को पुनः जीवनदान दिया जाये। वे अभी इस सीमा तक ही सफल हुए हैं कि दो घन्टे का मरा कुत्ता पुनः जीवित कर दिया गया है। रूसी वैज्ञानिक इस दिशा में प्रयत्नशील हैं।’

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