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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘वास्तव में यह नई खोज नहीं। इसके लिए वैज्ञानिक आरम्भ काल से ही लगे हुए हैं। वे जीवन का रहस्य जानने का यत्न कर रहे हैं। ‘प्रवदा’ में एक वैज्ञानिक का, जो इसी दिशा में कार्य कर रहा है, वक्तव्य छपा है। उसने आशा प्रकट की है कि निकट भविष्य में ही जीवन का रहस्य प्रकट हो जायेगा और तब भू-तल पर मानव-जीवन एक नई परिस्थिति पर पहुँचेगा।’’

यों तो मैंने भी यह समाचार बम्बई के एक पत्र में पढ़ा था, परन्तु मेरा ध्यान उस ओर इस प्रकार नहीं गया था, जिस प्रकार माणिकलाल ने आकर्षित किया था। मुझको विचारमग्न देख माणिकलाल अपना कथन जारी रखा।

‘‘देखिये वैद्यजी! आपमें अभी तक यूरोपियन ज्ञान की दासता विद्यमान है। इसी कारण जब आपको कोई प्राचीन काल की महिमायुक्त बात बताई जाती है तो आप उस पर सन्देह करने लगते हैं। मैं यह बात इस कारण नहीं कह रहा कि मुझमें अपने पूर्वजों के प्रति किसी प्रकार का झूठा मान विद्यमान है। ऐसी कोई बात नहीं है। असुर भारतीय नहीं थे। वे वेद मतानुयायी भी नहीं थे। उनकी संस्कृति विदेशी थी और शुक्राचार्य उनके गुरु थे। अतएव शुक्राचार्यजी के विषय में कोई अलौकिक बात कहनी अपने बड़ों की डींग हाँकना नहीं हो सकता।

‘‘इस पर भी मैंने आपसे निवेदन किया है कि कहानी का उद्देश्य और अर्थ समझने का यत्न करिये। सम्भव है इसमें कुछ काल्पनिक बात भी हो। परन्तु कहानी का उद्देश्य तो सत्य है।’’

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