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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

7

माणिकलाल के कहने में एक बात सदा विद्यमान थी। वह यह कि उनकी बात को मैं किसी युक्ति से काट नहीं सकता था। वे, जब भी मैं किसी बात पर सन्देह करता था, ऐसा युक्तियुक्त उत्तर देते थे कि मैं कुछ कह नहीं सकता था। साथ ही कथा, जो वह सुनाने लगे थे, रोचकता-विहीन नहीं होती थी। मैं और वे, दोनों ही अपने कम्पार्टमैंट में थे, अन्य तीसरा कोई नहीं। पूरे नौ घण्टे की यात्रा अभी शेष थी। अतएव मैं दत्त-चित्त होकर सुनने लगा और वे सुनाने लगे–

‘‘शुक्राचार्य की इस विद्या के कारण देवता लोग अति चिन्तित थे। उन्होंने शुक्राचार्य की इस विद्या को सीखने के लिए एक योजना बनाई। देवता अपने गुरु बृहस्पति के ज्येष्ठ पुत्र ‘कच’ के पास गये। उन्होंने कच को पूर्ण स्थिति समझाई और उसको शुक्राचार्य के पास उस संजीवनी विद्या को सीखने के लिए भेज दिया।’’

‘‘कच शुक्राचार्य के पास पहुँचा। अपना वास्तविक परिचय देकर उनको गुरु-पद स्वीकार करने के लिए आग्रह करने लगा। एक विद्धान् की भांति किसी योग्य शिष्य को पाने से गुरु शुक्राचार्य ने प्रसन्न हो कच को अपना शिष्य बना लिया।’’

‘‘असुरों के अधिपति वृषपर्वा को जब सूचना मिलीं कि देवातओं के गुरु बृहस्पति का योग्य विद्धान् पुत्र कच संजीवनी विद्या सीखने शुक्राचार्य के पास आया है तो उसको भारी क्रोध चढ़ गया। वह नहीं चाहता था कि ऐसी अद्भुत विद्या, जिसका अतुल लाभ असुरों को प्राप्त हो रहा था, देवताओं के पास चली जाय। इस कारण वह क्रोध से भरा हुआ शुक्राचार्य के पास गया और बोला, ‘‘आचार्य! यह देवताओं को भेजा हुआ भेदिया है। यह आपकी विद्या चुराने आया है। मेरी इच्छा है कि आप इसको यहाँ से निकाल दीजिये।’’

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