उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘शुक्राचार्य ने असुराधिपति वृषपर्वा से कहा, ‘राजन्! मैं राजा नहीं हूँ मैं विद्वान् आदमी हूँ और अनेकानेक विद्याओं का स्वामी हूँ। मेरी विद्याएँ किसी राजा की चेरी नहीं हैं। इसके विपरीत राजा लोग मेरी विद्याओं के चाकर हैं।’’
‘‘विद्या अधिकारी को दी जाती है। अधिकारी का तात्पर्य किसी जाति, धर्म अथवा देश के व्यक्ति से नहीं होता, प्रत्युत इस विद्या को समझने और सीखने की जिसमें योग्यता हो, वही अधिकारी कहलाता है। यह कच मर्हिष अंगिरा का पौत्र है, आचार्य बृहस्पति का पुत्र है और स्वयं भी कई प्रकार की विद्याओं में पारंगत है। ऐसे शिष्य को पाकर मुझे प्रसन्नता हो रही है। मैं अपनी विद्या को अपने साथ ही लेकर मर जाना नहीं चाहता।’’
‘‘बालक कच चोर नहीं है। इसने मेरे पास आकर अपना परिचय छिपाने का प्रयत्न नहीं किया। यह जानते हुए भी कि मैं असुर हूँ और वह देवपुत्र, उसने अपनी जाति और पिता का नाम बता दिया है। मैंने इसकी परीक्षा करके देख लिया है कि यह मेरी विद्या का अधिकारी है। मेरी इच्छा है कि यह मेरा शिष्य हो।’’
‘‘वृषपर्वा अधिक कुछ नहीं कह सका। उसको भय था कि कहीं वह कुछ अधिक कह गया तो आचार्यजी उसको शाप न दे दें। यदि वे शाप न भी दें लेकिन असुरों को छोड़कर देवताओं की इन्द्रपुरी में जाकर रहने लगे तो अनर्थ हो जायेगा। अतः उसने यह कहा, ‘‘आचार्यजी! हम आपके सजातीय और यजमान हैं, आपको कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, जिससे आपके जाति-भाइयों को हानि पहुँचे। यदि ऐसा हो जाय कि कच असुर हो जाय तो हमको भी प्रसन्नता होगी। इस पर भी आप हमारे बड़े हैं। आप जो करेंगे हमको उसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होगी।’’
|