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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘देखिये वैद्यजी! यह वृषपर्वा वर्तमान काल के हिटलर से भी अधिक योग्य था। हिटलर ने तो जाति-द्वेष के कारण विद्धानों को भी दण्डित करना आरम्भ कर दिया था। जितने भी यहूदी विद्वान्, वैज्ञानिक, चिकित्सक और मीमाँसक थे–सब जेल में डाल दिये गए थे। जो बच गये थे भागकर इंग्लैण्ड अमेरिका और रूस में जा पहुँचे। वहाँ इन्होंने अपनी इस विद्वता से उन देशों को सम्पन्न कर दिया।’’

‘‘इतनी मूर्खता तो वृषपर्वा ने नहीं की, परन्तु दुष्टता इससे भी अधिक की। वह और उसके सजातीय असुर यह आशा करते रहे कि कच शुक्राचार्य की लड़की देवयानी के प्रेम में फंस अपने वहाँ आने के उद्देश्य को भूल जाय, अथवा उससे विवाह कर असुरों में ही मिल जाय।’’

‘‘देवयानी अति सुन्दर कन्या थी। उस समय वह षोडशी थी और जहाँ तरुणाई से मस्त थी वहाँ असुरों के आचार के कारण सतीत्व की कुछ अधिक महिमा नहीं मानती थी।’’

‘‘कच पच्चीस वर्ष का अति सुन्दर और मेधावी युवक था। आचार्यजी के आश्रम में रहते हुए कच का परिचय देवयानी से हुआ और देवयानी कच के पीछे-पीछे भागने लगी।’’

‘‘कच संगीत-विद्या का ज्ञाता था। अतः प्रायः दोनों अवकाश के समय बन में चले जाते और वहाँ गाते, खेलते, नृत्य करते और इस प्रकार एक-दूसरे का मनोरंजन करते थे। यह बात विख्यात थी कि दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और इनका विवाह होगा।’’

‘‘इस प्रकार समय व्यतीत हो रहा था। आचार्यजी कच को पढ़ा रहे थे। परन्तु वे उसको संजीवनी विद्या नहीं दे रहे थे। दूसरी ओर वृषपर्वा के भेदिये कच और देवयानी के सम्बन्ध के विषय में सूचना लेते रहते थे। वे इस बात की प्रतीक्षा में थे कि कच और देवयानी का समागम हो तो आचार्यजी से कहकर उन दोनों का विवाह करा दें और फिर कच को आचार्यजी के शाप का भय दिखाकर असुर-जाति में सम्मिलित कर लें।’’

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