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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘इस घटना के पश्चात् शुक्राचार्य ने समझा कि वृषपर्वा अति दुष्ट व्यक्ति है, उसके साथी असुर भी महादुष्ट हैं। उन्हें अपने गुरु की हत्या करने में भी संकोच नहीं होता। अतः उसने असुरों को छोड़कर देवलोक में जाने का निश्चय कर लिया।’’

‘‘ऐसा करने से पूर्व उन्होंने देवयानी से कहा कि वह कच के साथ विवाह कर ले। देवयानी ने कच के सम्मुख प्रस्ताव रखा तो उसने स्पष्ट कह दिया कि गुरु-पुत्री होने के नाते वह उसकी बहिन है। इस लिए न तो वह अपनी बहिन के साथ समागम ही कर सकता है और न विवाह।’’

‘‘शुक्राचार्य ने भी इस विषय में बहुत यत्न किया कि किसी प्रकार इन दोनों का विवाह हो जाय, किन्तु कच अपनी बात पर अड़ा रहा और उसने कहा कि वह प्रारम्भ से ही देवयानी को अपनी छोटी बहिन के रूप में देखता आया है। अतः वह छोटी बहिन के साथ विवाह नहीं कर सकता।’’

‘‘इस उत्तर से जहाँ देवयानी को घोर निराशा हुई वहाँ शुक्राचार्य के मन में कच के प्रति मान बढ़ गया और जब वह शुक्राचार्य से विदा हुआ तो आचार्यजी ने उसको आर्शीर्वाद दिया।’’

इतना कह माणिकलाल ने बताया, ‘‘देखिये, यह कथा अस्वाभाविक प्रतीत होती हुई भी एक गम्भीर अर्थ रखती है। इससे यह सिद्ध होता है कि असुर अथवा दानव विज्ञान में देवताओं से बहुत आगे निकले हुए थे। परन्तु चरित्र के बल पर ही देवताओं ने अपनी हीनावस्था को उन्नत किया था और उसके बाद ये असुर किस प्रकार अपनी दुष्टता और मूर्खता से विनाश को प्राप्त हुए, यह बताता हूँ।’’

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