धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य धर्मरहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
हम जगत् के सब शास्त्रों को एक स्वर से इसी वाणी की घोषणा करते हुए सुन रहे हैं। यह वाणी ही हमसे कह रही है - ''जैसी स्वर्ग में, तद्रूप ही मृत्युलोक में भी तेरी इच्छा पूर्ण हो; कारण, सर्वत्र तेरा ही राजत्व है, तेरी ही शक्ति और तेरी ही महिमा है।'' कठिन, बड़ी कठिन बात है। अभी कहा - ''हे प्रभु, मैंने अभी तेरी शरण ली- प्रेममय! तेरे चरणों पर सर्वस्व समर्पण किया - तुम्हारी वेदी पर, जो कुछ भी सत् जो कुछ भी पुण्य है, सभी कुछ स्थापन किया। मेरा पाप-ताप, भला-बुरा कार्य सब कुछ तेरे ही चरणों पर मैं समर्पण करता हूँ - तू सब ग्रहण कर - मैं अब तुझे कभी न भूलूँगा।'' अभी कहा - ''तेरी इच्छा पूर्ण हो''; पर दूसरे मुहूर्त में ही जब एक परीक्षा में पड़ गया, तब हमारा वह ज्ञान लोप हो गया, मैं क्रोध में अन्धा हो गया।
सब धर्मों का एक ही लक्ष्य है, परन्तु विभिन्न आचार्य विभिन्न भाषाओं का व्यवहार करते रहते हैं। सब की चेष्टा इस झूठे 'अहम्’ या कच्चे 'अहम्’ का विनाश करना है। तब फिर सत्य के 'अहम्., पक्के 'अहम्-स्वरूप’, एकमात्र वे प्रभु ही रहेंगे। हिब्रू शास्त्र कहता है - ''तुम्हारा प्रभु ईर्ष्यापरायण ईश्वर है - तुम दूसरे किसी ईश्वर की उपासना नहीं करने पाओगे।'' हमारे हृदय में एकमात्र ईश्वर ही राज्य करें। हमको कहना होगा, ''नाहम् नाहम् तुहूँ तुहूँ।'' तब उस प्रभु को छोड़ हमें सर्वस्व त्यागना होगा; केवल वे ही राज्य करेंगे। मानो हमने खूब कठोर साधना की - परन्तु दूसरे मुहूर्त में हमारा पैर फिसल गया - और तब हमने माँ के निकट हाथ बढ़ाने की चेष्टा की - समझ गये कि निज चेष्टा द्वारा अकम्पित भाव से खड़ा होना असम्भव है।
हमारा अनन्त जीवन्त जीवन मानो वह अध्यायसमन्वित ग्रन्थ है, जिसका एक अध्याय यह है कि - ''तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।'' किन्तु यदि हम उस जीवनग्रन्थ के सब अध्यायों का मर्म ग्रहण न करें, तो समुदय जीवन का अनुभव नहीं कर सकते। ''तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो।'' प्रतिमुहूर्त ही विश्वासघाती मन इन सब भावों के विरुद्ध खड़ा हो रहा है, परन्तु हमें यदि इस कच्चे 'अहम् को जीतना हो तो बार बार उस बात की आवृत्ति करनी होगी।
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