धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य धर्मरहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
इन सब भावों का अनुभव करना बहुत बड़ी बात है और कठिन है। मैं मत-मतान्तर की बात कह रहा हूँ दार्शनिक विचार कर रहा हूँ कितनी बकबक कर रहा हूँ इतने में कुछ मेरे प्रतिकूल घटना घटी - मैं अज्ञान से कुद्ध हो उठा, तब भूल गया कि इस विश्व ब्रह्माण्ड में इस क्षुद्र ससीम मुझे छोड़ और भी कुछ है। मैं तब कहना भूल गया, ''मैं चैतन्यस्वरूप हूँ - इस अकिंचित्कार बात से मेरा क्या प्रयोजन है - मैं तो चैतन्यस्वरूप हूँ'' मैं तब भूल जाता हूँ कि यह सब मेरी ही लीला है, मैं ईश्वर को भूल जाता हूँ और मुक्ति की बात भी भूल जाता हूँ। 'छुरस्य धारा निशिता दुरस्त्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति।'
ऋषियों ने बार बार कहा है - मुक्ति का पथ उस्तरे की भांति तीक्ष्ण, दीर्घ और कठिन है - इसे अतिक्रमण करना कठिन है। किन्तु पथ कठिन हो, सैकड़ों दुर्बलताएँ आयें, सैकड़ों बार उद्यम विफल हो, परन्तु वे आपको अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर होने में हतोत्साह न करें। उपनिषदों की घोषणा है - 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत' उठो जागो, जब तक उस लक्ष्य पर नहीं पहुँचते तब तक रुको मत। यद्यपि वह पथ उस्तरे की धार की तरह तीक्ष्ण है - यद्यपि वह पथ दीर्घ है, दूरवर्ती और कठिन है, किन्तु हम उस पथ का अवश्य ही अतिक्रमण करेंगे। मनुष्य साधना के बल से एक दिन देव और असुर दोनों का ही प्रभु हो सकता है। हमारे दुःख के लिए स्वयं हमारे सिवा और कोई उत्तरदायी नहीं है। आप क्या समझते हैं कि मनुष्य यदि अमृत के लिए चेष्टा करे, तो वह उसके बदले में विष लाभ करेगा? नहीं, अमृत है - उसकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नशील प्रत्येक मनुष्य के लिए वह है। प्रभु ने स्वयं कहा है -
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
'सभी धर्मों का परित्याग कर एक मेरी शरण में आ। मैं तुझे समस्त पापों के पार लगा दूँगा। भय न कर।'
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