धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य धर्मरहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
पहले तो सब संकीर्ण धारणाओं का त्याग कीजिये, प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का दर्शन कीजिये - देखिये, वे सब हाथों से काम कर रहे हैं, सब पैरों से चल रहे हैं, सब मुखों से भोजन कर रहे हैं, प्रत्येक व्यक्ति में वास कर रहे हैं, सब मनों के द्वारा वे मनन कर रहे हैं - वे स्वतःप्रमाण हैं - हमारे निज की अपेक्षा वे हमारे अधिक निकटवर्ती हैं। यही जानना धर्म है - यही विश्वास है; प्रभु हमको यह विश्वास दें। हम जब समस्त संसार में इस अखण्ड का अनुभव करेंगे तब हम अमर हो जायँगे। भौतिक दृष्टि से देखने पर हम अमर हैं, सारे संसार के साथ एक हैं। जितने दिन तक एक व्यक्ति भी इस संसार में श्वास ले रहा है तब तक मैं उसके भीतर जीवित हूँ मैं यह संकीर्ण क्षुद्र व्यष्टि जीव नहीं हूँ मैं समष्टिस्वरूप हूँ। अतीत काल में जितने प्राणी हो गये हैं, मैं उन सभी का जीवनस्वरूप था; मैं ही बुद्ध, ईसा और मुहम्मद का आत्म-स्वरूप हूँ। मैं सब आचार्यगणों का आत्म-स्वरूप हूँ, मैं ही चौर्यवृत्तिकारी सकल चोरस्वरूप हूँ और जितने हत्याकारी फाँसी पर लटके हैं, उनका भी स्वरूप - मैं सर्वमय हूँ। अतएव उठो - यही परापूजा है। तुम स्वयं समग्र जगत् के साथ अभिन्न हो; यही यथार्थ विनय है - घुटने टेककर 'मैं पापी हूँ मैं पापी हूँ कहकर केवल चिल्लाने का नाम विनय नहीं है। जब इस भेद का आवरण छिन्न-विच्छिन्न हो जाता है, तभी सर्वोच्च उन्नति समझनी होगी। समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है। मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम् के लिए यह सत्य नहीं है। मैं समष्टिस्वरूप हूँ - इस धारणा के ऊपर खड़े होइये - इस पुरुषोत्तम की उच्चतम अनुष्ठान-प्रणालियों की सहायता से उपासना कीजिये, कारण ईश्वर जड़ वस्तु नहीं हैं, वे चैतन्यस्वरूप हैं, आत्मस्वरूप हैं, और आत्मरूप से तथा सत्य-रूप से उनकी यथार्थ उपासना करनी होगी।
पहले साधक उपासना की निम्नतम प्रणाली का अवलम्बन कर, उपासना करते करते जड़ विषय की चिन्ता से उच्च सोपान पर आरोहण करके आध्यात्मिक उपासना के राज्य में उपनीत होता है, तभी अन्त में आत्मा के माध्यम से और आत्मा में उस अखण्ड, अनन्त समष्टिस्वरूप भगवान की यथार्थ उपासना सम्भव होती है। जो कुछ सान्त है, वह जड़ है। चैतन्य ही केवल अनन्त-स्वरूप है, ईश्वर चैतन्यस्वरूप हैं इसीलिए वे अनन्त हैं; मानव चैतन्यस्वरूप है - मानव भी अनन्त है और अनन्त ही केवल अनन्त की उपासना में समर्थ है। हम उसी अनन्त की उपासना करेंगे, यही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है।
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