धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य धर्मरहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
इसी प्रकार वास्तव में हम ईश्वर से अभिन्न हैं; परन्तु जिस प्रकार एक सूर्य लाखों ओस-बिन्दुओं पर प्रतिबिम्बित होकर छोटे-छोटे लाखों सूर्यों- सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार ईश्वर भी बहु जीवात्मारूप से प्रतिभासित होते हैं। यदि हम अपने प्रकृत ब्रह्मस्वरूप के साथ अभिन्न होना चाहें, तो प्रतिबिम्ब को दूर करना आवश्यक है। विश्व-प्रपंच कदापि हमारे कार्यों की सीमा नहीं हो सकता। कृपण अर्थ-संचय करता रहता है, चोर चोरी करता है, पापी पापाचरण करता है, और आप दर्शन-शास्त्र की शिक्षा लेते हैं। इन सब का एक ही उद्देश्य है। मुक्ति-लाभ को छोड़ हमारे जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है। जाने या अनजाने, हम सब पूर्णता पाने की चेष्टा कर रहे हैं और प्रत्येक व्यक्ति उसे एक न एक दिन अवश्य ही पायेगा। जो व्यक्ति पापों में मग्न है, जिस व्यक्ति ने नरक के पथ का अनुसरण कर लिया है, वह भी इस पूर्णता का लाभ करेगा, परन्तु उसको कुछ विलम्ब होगा। हम उसका उद्धार नहीं कर सकते। जब उस पथ पर चलते-चलते वह कुछ कठिन चोटें खायेगा, तब वे ही उसे भगवान की ओर प्रेरित करेंगी। अन्त में वह धर्म, पवित्रता, निस्वार्थपरता और आध्यात्मिकता का पथ ढूँढ़ लेगा। और दूसरे लोग जिसका अनजान में अनुसरण कर रहे हैं, उसी धर्म का हम ज्ञानपूर्वक अनुसरण कर रहे हैं।
सेण्ट पाल ने एक स्थान पर इस भाव को खूब स्पष्ट रूप से कहा है, ''तुम जिस ईश्वर की अज्ञान में उपासना कर रहे हो, उन्हीं की मैं तुम्हारे निकट घोषणा कर रहा हूँ।'' समग्र जगत् को यह शिक्षा ग्रहण करनी होगी। सब दर्शनशास्त्रों और प्रकृति के सम्बन्ध में इन सब मतवादों को लेकर क्या होगा, यदि वे जीवन के इस लक्ष्य पर पहुँचने में सहायता न कर सकें? आइये, हम विभिन्न वस्तुओं में भेद-ज्ञान को दूर कर सर्वत्र अभेद का दर्शन करें - मनुष्य अपने को सब वस्तुओं में देखना सीखे। हम अब ईश्वर-सम्बन्धी संकीर्ण साधारणविशिष्ट धर्ममत और सम्प्रदायसमूह के उपासक न रहकर संसार में सभी के भीतर उनका दर्शन करना आरम्भ करें। आप लोग यदि ब्रह्मज्ञ हो, तो आप अपने हृदय में जिन ईश्वर का दर्शन कर रहे हैं, उन्हें सर्वत्र ही देखने में आप समर्थ होंगे।
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