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धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य

धर्मरहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


मृत्यु क्या है? भय किसका है? उन सब के भीतर क्या भगवान् का रूप दिखायी नहीं देता? दुःख, कष्ट और भय से दूर भागकर देखिये  - वे आपका पीछा करेंगे। उनके सामने खड़े होइये, वे भाग जायेंगे। सारा संसार सुख और आराम का उपासक है; जो कष्टप्रद है, उसकी उपासना करने का साहस बहुत कम लोग करते हैं। जो मुक्ति चाहता है, उसे इन दोनों का ही अतिक्रमण करना पड़ेगा। मनुष्य इस दुःखदायी द्वार के भीतर से गये बिना मुक्त नहीं हो सकता। हम सभी को इसका सामना करना पड़ेगा। हम ईश्वर की उपासना करने की चेष्टा करते हैं, किन्तु हमारी देह बीच में आती है, प्रकृति उनके और हमारे बीच में पड़कर हमारी दृष्टि को अन्धी कर देती है। कठोर वज्र के भीतर, लज्जा, मलिनता, दुःख-दुर्विपाक, पाप-ताप के भीतर भी हमें उनसे प्रेम करने की शिक्षा लेनी होगी। समग्र संसार धर्ममय ईश्वर का प्रचार चिरकाल से करता आ रहा है। मैं ऐसे ईश्वर का प्रचार करना चाहता हूँ जो एकाधार से धर्म और अधर्म दोनों में ही है; यदि साहस हो तो इस ईश्वर को ग्रहण करो - यही मुक्ति का एकमात्र उपाय है - इसके द्वारा ही आप उस एकस्वरूप चरम सत्य में पहुँच सकेंगे। तभी यह धारणा नष्ट होगी कि एक व्यक्ति दूसरे से बड़ा है। जितना ही हम इस मुक्तितत्त्व के पास जाते हैं, उतना ही हम ईश्वर के आश्रय में आते हैं, उतना ही हमारा दुःख-कष्ट दूर होता है। तब हम नरक के द्वार को स्वर्ग द्वार से पृथक नहीं समझेंगे, तब हम मनुष्य-मनुष्य में भेदबुद्धि कर यह नहीं कहेंगे कि मैं जगत् के किसी प्राणी से श्रेष्ठ हूँ। जब तक हमारी ऐसी अवस्था नहीं होती कि हम संसार में उस प्रभु के सिवाय और किसी को न देखें, तब तक हम दुःख कष्ट से घिरे ही रहेंगे, तब तक हम सब में भेद देखेंगे। कारण, हम उस भगवान में - उसी आत्मा में अभिन्न है, और जब तक हम ईश्वर को सर्वत्र नहीं देखेंगे, तब तक हम समग्र संसार के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकेंगे।

एक ही वृक्ष पर सुन्दर पंखवाले अभिन्न सखा दो पक्षी हैं - उनमें से एक वृक्ष के ऊपरवाले भाग पर और दूसरा नीचेवाले भाग पर बैठा है। नीचे का सुन्दर पक्षी वृक्ष के मीठे और कडुवे फलों को खाता है - एक बार मीठे फल को और उसके बाद ही कडुवे फल को खाता है। जिस मुहूर्त में उसने कडुवे फल को खाया, उसको कष्ट हुआ, कुछ क्षण के बाद ही एक और फल खाया और जब वह भी कडुवा लगा, तब उसने ऊपर की ओर देखा। ऊपर उसको दूसरा पक्षी दिखायी दिया, वह मीठे या कडुवे किसी भी फल को नहीं खाता। वह अपनी महिमा में मग्न हो स्थिर और धीर भाव से बैठा है। किन्तु वह उसे देखकर भी फिर भूल से फल खाने लगा - अन्त में उसने एक ऐसा फल खाया जो बड़ा ही कडुवा था, तब वह फल खाने से विरक्त हो फिर उस ऊपर वाले महिमामय पक्षी को देखने लगा। धीरे-धीरे वह उस ऊपर वाले पक्षी की ओर अग्रसर होने लगा। जब वह उसके एकदम निकट पहुँचा, तब उस ऊपरवाले पक्षी की अंगज्योति उसके ऊपर पड़ी और धीरे-धीरे उस ज्योति ने उसको वेष्टित कर लिया। अब तो उसने देखा कि वह उस ऊपरवाले पक्षी में ही परिणत हो गया है। तब से वह शान्त, महिमामय और मुक्त हो गया - उसे ज्ञात हुआ कि वास्तव में वृक्ष पर दो पक्षी कभी थे ही नहीं - केवल एक ही पक्षी था। नीचेवाला पक्षी ऊपरवाले पक्षी की केवल छाया थी।

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