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धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य

धर्मरहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


समग्र ब्रह्माण्ड में मुक्ति - स्वाधीनता - का स्पन्दन हो रहा है। इस ब्रह्माण्ड के अन्तरतम प्रदेश में यदि एकत्व न रहता, तो हम बहुत्व का ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर सकते थे। उपनिषद् में ईश्वर की धारणा इसी प्रकार की है। समय-समय पर यह धारणा और भी उच्चतर स्तर में उठी है - उसने हमारे सामने एक ऐसे आदर्श की स्थापना की है - जिससे पहले- पहल तो हमें स्तम्भित हो जाना पड़ता है - वह आदर्श यह है कि स्वरूपत: हम ईश्वर से अभिन्न हैं। वे ही तितली के विचित्र वर्ण हैं और वे ही गुलाब की कली के प्रस्फुटन के रूप में आविर्भूत हुए हैं; और वे ही तितली तथा गुलाब के पौधे में शक्तिरूप में विद्यमान हैं। जिन्होंने हमें जीवन दिया है, वे ही हमारे अन्तर में शक्तिरूप से विराज रहे हैं। उनके तेज से जीवन का आविर्भाव और उन्हीं की शक्ति से कठोरतम मृत्यु होती है। उनकी छाया ही मृत्यु है और उनकी छाया ही अमृतत्व है। एक और उच्चतर धारणा की बात कहता हूँ। भयानक जो कुछ भी है, उससे हम सभी बहेलिये द्वारा खदेड़े हुए खरगोश की भाति भाग रहे हैं, उसी की भांति मुँह को छिपाकर अपने को निरापद सोचते हैं। ऐसे ही यह समग्र संसार, जो कुछ भी भयानक देखता है, उसके पास से भागने की चेष्टा कर रहा है।

एक बार मैं काशी में किसी जगह जा रहा या, उस जगह एक तरफ भारी जलाशय और दूसरी तरफ ऊँची दीवाल थी। उस स्थान पर बहुत-से बन्दर थे। काशी के बन्दर बड़े दुष्ट होते हैं। अब उनके मस्तिष्क में यह विकार पैदा हुआ कि वे मुझे उस रास्ते पर से न जाने दें। वे विकट चीत्कार करने लगे और झट आकर मेरे पैरों से जकड़ने लगे। उनको निकट देखकर मैं भागने लगा, किन्तु मैं जितना ज्यादा जोर से दौड़ने लगा, वे उतनी ही अधिक तेजी से आकर मुझे काटने लगे। अन्त में उनके हाथ से छुटकारा पाना असम्भव प्रतीत हुआ - ठीक ऐसे ही समय एक अपरिचित मनुष्य ने आकर मुझे आवाज दी, 'बन्दरों का सामना करो', मैं भी जैसे ही उलटकर उनके सामने खड़ा हुआ, वैसे ही वे पीछे हटकर भाग गये। समस्त जीवन में हमको यह शिक्षा लेनी होगी - जो कुछ भी भयानक है, उसका सामना करना पड़ेगा, साहसपूर्वक उसके सामने खड़ा होना पड़ेगा। जैसे बन्दरों के सामने से न भागकर उनका सामना करने पर वे भाग गये थे, उसी प्रकार हमारे जीवन में जो कुछ कष्टप्रद बातें हैं, उनका सामना करने पर ही वे भाग जाती हैं। यदि हमको मुक्ति या स्वाधीनता का अर्जन करना हो तो प्रकृति को जीतने पर ही हम उसे पायेंगे, प्रकृति से भागकर नहीं। कापुरुष कभी जय नहीं पा सकता। हमको भय, कष्ट और अज्ञान के साथ संग्राम करना होगा, तभी वे हमारे सामने से भाग जायँगे।

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