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धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य

धर्मरहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


ईश्वर सदा ही अपने महिमामय अपरिणामी स्वरूप पर प्रतिष्ठित हैं। आप और हम उनके साथ एक होने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु इधर बन्धन की कारणीभूत प्रकृति, नित्य जीवन की छोटी-छोटी बातें, धन, नाम, यश, मानव-प्रेम प्रवृति प्राकृतिक विषयों पर निर्भर है। परन्तु यह जो समग्र प्रकृति प्रकाश पा रही है, उसका प्रकाश किस पर निर्भर है? ईश्वर के प्रकाश से ही प्रकृति प्रकाश पाती है; सूर्य, चन्द्र, तारों के प्रकाश से नहीं।

जहाँ कुछ भी वस्तु प्रकाशित है, चाहे वह सूर्य के प्रकाश से हो अथवा हमारी अन्तरात्मा के प्रकाश से, वह उनका ही प्रकाश है। वे प्रकाशस्वरूप हैं। उन्हीं के प्रकाश से समुदय संसार प्रकाश पा रहा है।

हमने देखा कि ये ईश्वर स्वतःसिद्ध हैं, निर्गुण, सर्वज्ञ, प्रकृति के ज्ञाता और प्रभु, सब के ईश्वर हैं। सब उपासनाओं के मूल में वे विद्यमान हैं, हम चाहे समझें या न समझें, उन्हीं की उपासना हो रही है। केवल यही नहीं, मैं जरा और भी आगे बढ़कर कहना चाहता हूँ और इस बात को सुनकर शायद सभी आश्चर्यचकित होंगे, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि जिसको अशुभ कहा जाता है, वह भी उन्हीं की उपासना है। वह भी मुक्ति का ही एक कोना है। केवल वही नहीं - आप शायद मेरी यह बात सुनकर डर जायेंगे, किन्तु मैं कहता हूँ - जब आप कोई बुरा कार्य कर रहे हैं, तो उस मुक्ति की अदम्य आकांक्षा ही प्ररोचक शक्ति-रूप से उसके पीछे विद्यमान है। सम्भव है कि वह गलत रास्ते पर जा रही है, परन्तु वह विद्यमान है अवश्य - यह कहना पड़ेगा। और फिर उस मुक्ति की - स्वाधीनता की प्रेरणा न रहने से किसी प्रकार का जीवन या किसी प्रकार की प्रेरणा नहीं रह सकती।

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