धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य धर्मरहस्यस्वामी विवेकानन्द
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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।
यहाँ हम देखते हैं कि वही ईश्वरीय भाव अज्ञानावरण के भीतर से क्षीण रूप में प्रकाशित हो रहा है। पहले-पहल वह आवरण बड़ा घना रहता है और मालूम होता है कि वह ब्रह्मज्योति एक तरह से उससे आच्छादित है, परन्तु वास्तव में वही मुक्ति और पूर्णतारूप उज्ज्वल अग्नि सदा शुद्ध और आच्छादित भाव से ही वर्तमान रहती है। मनुष्य उसी में व्यक्ति-धर्म का आरोप कर उसे ब्रह्माण्ड का नियन्ता एकमात्र मुक्त पुरुष कहकर उसकी धारणा करता है। वह तब भी नहीं जानता कि समग्र ब्रह्माण्ड एक अखण्ड वस्तु है - प्रभेद है केवल परिमाण में और धारणा में - विचार में। समग्र प्रकृति ही ईश्वर की उपासना-स्वरूप है। जहाँ भी किसी प्रकार का जीवन है, वहीं मुक्ति का अनुसन्धान है और वह मुक्ति ही ईश्वर स्वरूप है। इस मुक्ति के लाभ करने पर निश्चय ही समग्र प्रकृति पर आधिपत्य प्राप्त होता है, और ज्ञान के बिना मुक्ति पाना असम्भव है। हम जितने अधिकतर ज्ञानसम्पन्न होते हैं, उतना ही हम प्रकृति पर आधिपत्य पा सकते हैं। और प्रकृति जितनी ही हमारे वशीभूत होती जाती है, उतना ही हम अधिकतर शक्ति सम्पन्न, अधिकतर ओजस्वी होते जाते हैं, और यदि ऐसे कोई पुरुष हों जो सम्पूर्ण मुक्त और प्रकृति के प्रभु हैं, तो उनको अवश्य ही प्रकृति का पूर्ण ज्ञान रहेगा। वे सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होंगे। मुक्त और स्वाधीनता के साथ-साथ ये गुण अवश्य रहेंगे, और जो व्यक्ति उनको प्राप्त कर लेंगे, केवल वे ही प्रकृति के पार जाने में समर्थ होंगे।
वेदान्त में ईश्वर विषयक जो सब तत्त्व पढ़ने में आते हैं उनके मूल में पूर्ण मुक्ति एवं स्वाधीनता से उत्पन्न परमानन्द तथा नित्य शान्तिरूप धर्म की उच्चतम धारणा विद्यमान है। सम्पूर्ण मुक्तभाव से अवस्थान - कुछ भी उसको बद्ध नहीं कर सकता, वहाँ प्रकृति नहीं है, किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जो उसमंो किसी प्रकार का परिणाम उत्पन्न कर सके। यह मुक्तभाव आपके भीतर है, मेरे भीतर है और यही एकमात्र यथार्थ स्वाधीनता है।
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