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धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य

धर्मरहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।


प्रकृति ही हमारी उन्नति के प्रत्येक सोपान को नियमित कर रही है, इस प्रकार की धारणा करने से स्वाधीनता या मुक्ति के भाव को बिलकुल उड़ा देना पड़ता है; परन्तु जिस प्रकार नियम में बद्ध जड़-जगत् की धारणा चल रही है, उसी प्रकार मुक्ति की धारणा भी चल रही है। इन दो धारणाओं का लगातार संग्राम चल रहा है। हम अनेक मत-मतान्तर तथा विभिन्न सम्प्रदायों के विवाद की बात सुन रहे हैं, परन्तु विभिन्न मत या विभिन्न सम्प्रदायों का होना अन्याय या अस्वाभाविक नहीं है - वे अवश्य रहेंगे। शृंखला जितनी दीर्घ हो रही है, स्वभावत: उतना ही द्वन्द्व बढ़ रहा है; परन्तु यदि हम समझ लें कि हम सब उसी एक प्रकार के लक्ष्य की ओर पहुँचने की चेष्टा कर रहे हैं तो विवाद का प्रयोजन फिर नहीं रहेगा।

मुक्ति या स्वाधीनता के इस मूर्त-विग्रहस्वरूप प्रकृति के प्रभु को हम ईश्वर कहा करते हैं। आप उनको अस्वीकार नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि आप इस स्वाधीनता के भाव को कभी भगा नहीं सकते, इस भाव के बिना एक मुहूर्त भी जीवन धारण नहीं किया जा सकता। यदि आप अपने को स्वाधीन कहकर विश्वास नहीं करते तो आप क्या कभी यहाँ आ सकते थे? सम्भव है कि प्राणितत्त्वविद् आकर इस मुक्त होने की निरन्तर चेष्टा पर एक व्याख्यान दे सकते हैं और देंगे भी। यह सब मैं मानता हूँ किन्तु फिर भी स्वाधीनता का भाव तो हमारे भीतर से नहीं जाता। जैसे हम प्रकृति के अधीन हैं, प्रकृति के बन्धन को किसी प्रकार काट नहीं सकते, ये भाव सदा हमारे भीतर वर्तमान हैं, वैसे ही स्वाधीनता का भाव भी हमारे भीतर सदा वर्तमान है।

बन्धन और मुक्ति, प्रकाश और छाया, अच्छा और बुरा - सर्वत्र ही ये दो बातें हैं। समझना होगा कि जहाँ भी किसी प्रकार का बन्धन है उसके पीछे मुक्ति भी गुप्त भाव से विद्यमान है। यदि एक सत्य हो तो दूसरा भी अवश्य सत्य होगा। सर्वत्र ही मुक्ति की धारणा अवश्य रहेगी। हम अशिक्षित व्यक्तियों में जिस प्रकार बन्धन की धारणा देखते हैं, उसको हम मुक्ति की धारणा कहकर अभी न समझें, तथापि वह धारणा उनके भीतर मौजूद है। अशिक्षित और जंगली मनुष्य के मन में पाप और अपवित्रता के बन्धन की धारणा बहुत कम है, कारण, उसकी प्रकृति पशु स्वभाव से अधिक उन्नत नहीं है। वह भौतिक प्रकृति के बन्धन से, भौतिक सुख- सन्तोष के अभाव से अपने को मुक्त करने की चेष्टा करता रहता है; किन्तु इस निम्नतर धारणा से धीरे-धीरे उसके मन में मानसिक और नैतिक बन्धन की धारणा और आध्यात्मिक स्वाधीनता की आकांक्षा जाग उठती है।

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