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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


आत्मा पर किसी वस्तु की क्रिया नहीं हो सकती - यह विचार सिर्फ भ्रम है; किन्तु मनुष्य को उस 'तत्’ के साथ अपना तादात्म्य, स्वात्मनि क्रियाभाव करना ही होगा, शरीर या मन से नहीं। उसे यह बोध होना चाहिए कि वह विश्व का द्रष्टा है, तब वह उस अद्भुत अस्थायी दृश्यावली का आनन्द ले सकता है, जो उसके सामने निकल रही है। उसे स्वयं से यह भी कहना चाहिए कि 'मैं विश्व हूँ, मैं ब्रह्म हूँ।' जब स्वयं मनुष्य 'वास्तव में' स्वयं का उस एक आत्मा के साथ तादात्म्य कर लेता है, उसके लिए सभी कुछ सम्भव हो जाता है और सभी पदार्थ उसके सेवक हो जाते हैं। जैसा श्रीरामकृष्ण ने कहा है - जब मक्खन निकाल लिया जाता है तो वह दूध या पानी में रखा जा सकता है और दोनों में से किसी में न मिलेगा; इसी प्रकार मनुष्य जब आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तो वह संसार द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता।

एक गुब्बारे से नीचे की स्वल्प भिन्नताएँ परिलक्षित नहीं होतीं; इसी प्रकार जब मनुष्य अध्यात्म क्षेत्र में पर्याप्त ऊँचा उठ जाता है, वह भले और बुरे लोगों का भेद नहीं देख पाता; एक बार घट पका दिये जाने पर उसका आकार नहीं बदला जा सकता। इसी प्रकार, जिसने एक बार प्रभु का स्पर्श कर लिया और जिसे अग्नि की दीक्षा मिल गयी, उसे बदला नहीं जा सकता। संस्कृत में दर्शन का अर्थ है, सम्यक् दर्शन और धर्म व्यावहारिक दर्शन है। भारत में केवल सैद्धान्तिक और आनुमानिक दर्शन का बहुत आदर नहीं है। वहाँ कोई सम्प्रदाय, मत और पन्थ (dogma) नहीं है। दो मुख्य विभाग हैं - द्वैतवादी और अद्वैतवादी। पहले पक्ष के लोग कहते हैं, ''मुक्ति का मार्ग ईश्वर की दया से लभ्य है, कार्य-कारण का नियम एक बार चालू हो जाने पर कभी तोड़ा नहीं जा सकता; केवल ईश्वर, जो नियम से बद्ध नहीं है, अपनी दया से, हमें इसे तोड़ने में सहायता देता है।'' दूसरे पक्ष का कहना है, ''इस सारी प्रकृति के पीछे कुछ है, जो मुक्त है और उस वस्तु के मिलने से, जो सभी नियमन से परे है, हम स्वतन्त्र हो जाते हैं और स्वतन्त्रता ही मुक्ति है।''

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