धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
सज्जनो! ज्वार-भाटे का यही कारण है और आप स्वयं आसानी से समझ सकते हैं कि यह व्याख्या कितनी युक्ति-पूर्ण और सरल है।'' जो दोनों व्यक्ति ज्वार-भाटा उत्पन्न करने में चन्द्रमा की शक्ति का उपहास करते थे, उन्हें ऐसे स्पंज पर्वत में, जिस पर देवता नृत्य करते हैं, कुछ भी अविश्वसनीय न लगा, देवता उनके लिए सत्य थे और उन्होंने सचमुच स्पंज भी देखा था। तब उन दोनों का संयुक्त प्रभाव समुद्र पर होना भी क्या असम्भव था?
आराम सत्य की कसौटी नहीं है, प्रत्युत् सत्य आरामदायक होने से बहुत दूर है। यदि कोई सचमुच सत्य की खोज का इरादा करे तो उसे आराम के प्रति आसक्त न होना चाहिए। सब कुछ छोड़ देना कठिन काम है, किन्तु ज्ञानी को यह अवश्य करना पड़ता है। उसे पवित्र बनना ही होगा, सभी कामनाओं को मारना होगा और अपने को शरीर के साथ तादात्म्य से रोकना होगा। केवल तभी उसके अन्तःकरण में उच्चतर सत्य प्रकाशित हो सकेगा। बलिदान आवश्यक है और निम्नतर जीवात्मा का यह बलिदान ऐसा आधारभूत सत्य है, जिसने आत्मत्याग को सभी धर्मों का एक अंग बना दिया है। देवताओं के प्रति की जानेवाली सभी प्रसादक आहुतियाँ आत्म-त्याग की ही, जिसका कि कुछ वास्तविक मूल्य है, अस्पष्ट रूप से समझी जानेवाली अनुकरण हैं और अयथार्थ आत्म-समर्पण से ही हम यथार्थ आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं। ज्ञानी को शरीर-धारण के निमित्त चेष्टा न करनी चाहिए और न इच्छा करनी चाहिए। चाहे संसार गिर पड़े, दृढ़ होकर परम सत्य का अनुसरण करना चाहिए। जो 'धुनों' का अनुसरण करते हैं, वे ज्ञानी कभी नहीं बन सकते। यह तो जीवन भर का कार्य है; नहीं, सौ जीवनों का कार्य है। बहुत थोड़े लोग ही अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार करने का साहस करते हैं और स्वर्ग, साकार ईश्वर तथा पुरस्कार की सभी आशाओं का त्याग करने का साहस रखते हैं। उसे सिद्ध करने के लिए, दृढ़ इच्छा की आवश्यकता होती है, आगा-पीछा करना भी भारी दुर्बलता का चिह्न है। मनुष्य सदैव पूर्ण है, अन्यथा वह कभी ऐसा न बन पाता। किन्तु उसे प्राप्त करना है। यदि मनुष्य कार्य-कारणों से बद्ध हो तो वह केवल मरणशील हो सकता है। अमरत्व तो केवल निरुपाधिक के लिए ही सत्य हो सकता है।
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