धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
पंचम प्रवचन
यह प्रश्न कि नित्य शरीर क्यों नहीं हो सकते, स्वयं ही अर्थहीन है, क्योंकि 'शरीर' एक ऐसा शब्द है, जो मौलिक द्रव्य के एक विशेष संघात के प्रति प्रयुक्त होता है, जो परिवर्तनशील है और जो स्वभाव से ही अस्थायी है। जब हम परिवर्तनों के बीच नहीं गुजरते, हम तथाकथित शरीरधारी जीव नहीं होते। 'जड़पदार्थ' जो देश, काल और निमित्त की सीमा के परे हो, जड़ हो ही नहीं सकता। स्थान और काल केवल हममें विद्यमान हैं; लेकिन हम तो यथार्थत: एक अन्य नित्य आत्मा ही हैं। सभी नाम-रूप परिवर्तनशील हैं, इसीलिए सब धर्म कहते हैं, 'ईश्वर का कोई आकार नहीं है।' मिलिन्द एक यूनानी बैक्ट्रियन राजा था, वह ईसा के लगभग 150 वर्ष पूर्व एक बौद्ध धर्मप्रचारक संन्यासी द्वारा बौद्ध धर्म में दीक्षित कर लिया गया और उनके द्वारा उसे 'मिलिन्द' कहा गया। उसने अपने गुरु एक तरुण संन्यासी से पूछा, ''क्या (बुद्ध जैसे) सिद्ध मनुष्य कभी भूल कर सकते हैं?'' तरुण संन्यासी का उत्तर था, ''सिद्ध मनुष्य ऐसी साधारण बातों में अज्ञान में रह सकते हैं, जो उनके अनुभव में न आयी हों, किन्तु वे ऐसी बातों में भूल 'नहीं' कर सकते, जो कि उनकी अन्तर्दृष्टि ने सचमुच प्रत्यक्ष पा ली हों।'' वे तो अभी और यहीं पूर्णतया सिद्ध हैं, वे विश्व का सारा रहस्य या मूल तत्व स्वयं जानते हैं, किन्तु वे केवल बाह्य भिन्नताओं को नहीं जान सकते हैं, जिनके माध्यम से वह तत्व स्थान और काल में प्रकट होता है। वे स्वयं मृत्तिका को जानते हैं, पर जिन-जिन रूपों में उसे परिणत किया जा सकता है, उनमें से प्रत्येक का अनुभव नहीं रखते। सिद्ध मनुष्य स्वयं आत्मा को तो जानता है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति के प्रत्येक रूप और संघात को नहीं। जैसा कि हम कहते हैं, उन्हें भी इसके लिए ऐसा और अधिक सापेक्षिक ज्ञान प्राप्त करना होगा, यद्यपि अपनी महान् आध्यात्मिक शक्ति के कारण वे उसे अत्यधिक शीघ्रता से सीख लेंगे।
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