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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


मनुष्य, कार्य-कारण द्वारा यथार्थत: 'नहीं' बँधा है। दुःख और कष्ट मनुष्य में नहीं हैं, वे तो भागते हुए बादल के समान होते हैं जो सूर्य पर अपनी परछाईं डालता है। बादल हट जाता है, पर सूर्य अपरिवर्तित रहता है, और यही बात मनुष्य के विषय में है। वह उत्पन्न नहीं होता, वह मरता नहीं, वह देश और काल में नहीं है। यह सब विचार केवल मन ही के प्रतिबिम्ब हैं, किन्तु हम उन्हें भ्रमवश यथार्थ समझ लेते हैं और इस प्रकार उस महिमान्वित प्रकृत सत्य को जो विचारों से आच्छादित हुआ है, हम नहीं प्राप्त कर सकते। काल तो हमारे चिन्तन की प्रक्रिया है, परन्तु हम तो यथार्थत: नित्य वर्तमान काल ही हैं।

शुभ और अशुभ का अस्तित्व केवल हमारे सम्बन्ध से है। एक के बिना दूसरा नहीं प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि दोनों में से किसी का भी दूसरे से पृथक् न तो अस्तित्व है और न अर्थ। जब तक हम द्वैतवाद को मान्यता देते हैं अथवा ईश्वर और मनुष्य को पृथक् करके मानते हैं, तब तक हमें शुभ और अशुभ - दोनों ही देखने पड़ेंगे, केवल केन्द्र में जाकर ही, केवल ईश्वर से एकीकृत होकर ही हम इन्द्रियों के मोह-जाल से बच सकते हैं।

जब हम कामना के अनन्त ज्वर को, उस अनन्त तृष्णा को, जो हमें चैन नहीं लेने देती, त्याग देंगे, जब हम सदा के लिए कामना को जीत लेंगे तब हम शुभ-अशुभ - दोनों से छूट पायेंगे, क्योंकि तब हम उन दोनों का अतिक्रमण कर जाएँगे। कामना की पूर्ति उसे केवल और अधिक बढ़ाती है, जैसे कि अग्नि में डाला हुआ घी, उसे और भी तीव्रता से प्रज्वलित कर देता है। चक्र जितना ही केन्द्र से दूर होगा, उतना ही तीव्र चलेगा, और उतना ही उसे कम विश्राम मिलेगा। केन्द्र के निकट जाओ, कामना का दमन करो, उसे निकाल बाहर करो, मिथ्या अहं को त्याग दो, तब हमारी दिव्य दृष्टि खुल जायगी और हम ईश्वर का दर्शन करेंगे, इहलौकिक और पारलौकिक जीवन के त्याग द्वारा ही हम उस अवस्था पर पहुँचेंगे, जहाँ कि हम वास्तविक आत्म-तत्व पर दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हो सकेंगे।

जब तक हम किसी वस्तु की आकांक्षा करते हैं, तब तक कामना हमारा शासन करती है। केवल एक क्षण के लिए वास्तव में 'आशाहीन’ हो जाओ और कुहरा साफ हो जाएगा। चूंकि जब कोई स्वयं सत्यस्वरूप है तो वह किसकी आशा करे? ज्ञान का रहस्य है सब कुछ का त्याग और स्वयं में ही परिपूर्ण हो जाना। 'नहीं' कहो, और तुम 'नहीं' रह जाओगे, और 'है' कहो तो तुम 'है' बन जाओगे। अंतःस्थ आत्मा की उपासना करो, और कुछ तो है ही नहीं; जो कुछ हमें बन्धन में डालता है, वह माया है, भ्रम-जाल है।

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