धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
सप्तम प्रवचन
विश्व में आत्मा सभी का अधिष्ठान है, किन्तु वह स्वयं कभी उपाधिविशिष्ट नहीं हो सकती। जब हम जानते हैं कि 'हम वह हैं', हम मुक्त हो जाते हैं। मर्त्य के रूप में हम न कभी मुक्त थे और न हो सकते हैं। मुक्त मरणशीलता परस्परविरोधी है। क्योंकि मरणशीलता में परिवर्तन निहित है और केवल अपरिवर्तनशील ही मुक्त हो सकता है। आत्मा ही मुक्त है और वही हमारा यथार्थ सार-तत्व है। सभी सिद्धान्तों और विश्वासों के बावजूद, हम इस आन्तरिक मुक्ति का अनुभव करते हैं, हम उसके अस्तित्व को जानते हैं और हर कार्य यह सिद्ध करता है कि हम उसे जानते हैं। इच्छा स्वतन्त्र नहीं है, उसकी आपातदृष् स्वतन्त्रता आत्मा का एक प्रतिबिम्ब मात्र है। यदि संसार कार्य और कारण की एक अनन्त शृंखला होती तो उसके हितार्थ कोई कहाँ खड़ा होता? रक्षक को खड़े होने के लिए सूखी भूमि का एक टुकड़ा तो होना ही चाहिए, अन्यथा वह किसी को कार्यकारण रूप तीव्र धारा से खींचकर कैसे बाहर करेगा और उसे डूबने से बचायेगा। वह हठधर्मी भी, जो सोचता है, मैं एक कीड़ा हूँ? समझता है कि वह एक सन्त बनने के मार्ग पर है। वह कीड़े में भी सन्त को देखता है।
मानव-जीवन के दो उद्देश्य या लक्ष्य हैं - विज्ञान और आनन्द। बिना युक्ति के ये दोनों असम्भव हैं। वे समस्त जीवन की कसौटी हैं। हमें शाश्वत एकत्व का इतना अधिक अनुभव करना चाहिए कि यह समझते हुए कि हम ही पाप कर रहे हैं, हम सभी पापियों के लिए रोयें। शाश्वत नियम आत्म-त्याग है, आत्म-प्रतिष्ठान नहीं। जब सभी एक हैं तो प्रतिष्ठान किस आत्मा का? कोई 'अधिकार' नहीं है, सभी प्रेम है। ईसा ने जिन महान् सत्यों का उपदेश दिया, उनको कभी जीवन में नहीं उतारा गया। आओ, हम उनके मार्ग पर चलकर देखें, क्या संसार को बचाया जा सकता है या नहीं। विपरीत मार्ग ने संसार को लगभग नष्ट कर दिया है। मात्र स्वार्थहीनता ही प्रश्न को हल कर सकती है, स्वार्थपरता नहीं।
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