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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


'अधिकार' का विचार एक सीमाकरण है। वास्तव में 'मेरा और तेरा' है ही नहीं, क्योंकि मैं तू हूँ और तू मैं है। हमारे पास 'दायित्व' है, 'अधिकार' नहीं। हमें कहना चाहिए,  'मैं विश्व हूँ’ न कि 'मैं जॉन हूँ’ या 'मैं मेरी हूँ।‘

ये समस्त सीमाएँ भ्रम-जाल हैं जो हमें बन्धन में डाले हुए हैं, क्योंकि जैसे ही मैं समझता हूँ?  'मैं जॉन हूँ’ मैं कुछ वस्तुओं पर अपवर्जित विशेषाधिकार चाहता हूँ? 'मुझे' और 'मेरा' कहने लगता हूँ और ऐसा करने में निरन्तर नये भेदों का सर्जन करता जाता हूँ। इस प्रकार हर नये भेद के साथ हमारा बन्धन बढ़ता जाता है और हम केन्द्रीय एकत्व और अविभक्त असीम से दूरातिदूर होते जाते हैं। व्यक्ति तो केवल एक है और हममें से प्रत्येक वही है। केवल एकत्व ही प्रेम है और निर्भयता है, पार्थक्य हमें घृणा और भय की ओर ले जाता है। एकत्व ही नियम का प्रतिपालन करता है।

यहाँ पृथ्वी पर हम छोटे-छोटे स्थानों को घेर लेने तथा अन्य लोगों को अपवर्जित करने की चेष्टा करते हैं, पर हम आकाश में ऐसा नहीं कर सकते। किन्तु सम्प्रदायवादी धर्म, जब वह यह कहता है कि 'केवल यही मुक्ति का मार्ग है और अन्य सब मिथ्या है' तो ऐसा ही करने की चेष्टा करता है। हमारा लक्ष्य इन छोटे घरौंदों को हटाने का, सीमा को इतना विस्तृत करने का है कि वह दिखायी ही न दे, और यह समझने का होना चाहिए कि सभी धर्म ईश्वर की ओर ले जाते हैं। इस छोटे तुच्छ अहं का बलिदान अवश्य होना चाहिए। बपतिस्मा के प्रतीक द्वारा एक नये जीव में इसी सत्य को लक्षित किया जाता है - पुराने आदमी की मृत्यु और नये का जन्म, मिथ्या अहं का नाश और आत्मा, विश्व की एक आत्मा का साक्षात्कार।

वेदों के दो प्रधान भाग हैं, कर्मकाण्ड - कर्म या कार्यसम्बन्धी भाग और ज्ञानकाण्ड - जानने के, सत्य ज्ञान के विषय का भाग।

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