धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
वेदों में हम धार्मिक विचारों के विकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया प्राप्त कर सकते हैं। यह इसलिए है कि उच्चतर सत्य की प्राप्ति होने पर, उस तक पहुँचानेवाली निम्नतर अनुभूति को भी सुरक्षित रखा गया। ऐसा ऋषियों ने यह अनुभव करके किया कि सृष्टिजन्य यह संसार शाश्वत है, अत: उसमें सदा ऐसे लोग रहेंगे जिन्हें ज्ञान के प्रथम सोपानों की आवश्यकता रहेगी; सर्वोच्च दर्शन यद्यपि सभी के लिए सुलभ है, पर सभी उसे ग्रहण तो नहीं कर सकते। प्राय: अन्य सभी धर्मों में सत्य के केवल अन्तिम अथवा उच्चतम साक्षात्कार को ही सुरक्षित रखा गया, जिसका स्वाभाविक फल यह हुआ कि प्राचीनतर धारणाएँ विलुप्त हो गयीं। नवीन को केवल थोड़े से लोग ही समझ पाते हैं और शनै:-शनै: अधिकांश जन के निकट उनका कोई अर्थ नहीं रह जाता। हम इस फल को प्राचीन परम्पराओं और अधिकारियों के विरुद्ध बढ़ते हुए विद्रोह के रूप में स्पष्ट देखते हैं। उन्हें स्वीकार करने के स्थान पर आज का मनुष्य साहसपूर्वक उन्हें चुनौती देता है कि वे अपने दावे के कारण बतायें और उन आधारों को स्पष्ट करें, जिन पर कि वे उनकी स्वीकृति की माँग करते हैं। ईसाई धर्म में बहुत कुछ तो प्राचीन मूर्तिपूजकों की आस्थाओं और रीतियों को नये नाम और अर्थ देना मात्र है।
यदि प्राचीन स्रोत सुरक्षित रखे गये होते और परिवर्तन के कारणों की व्याख्या पूर्ण रूप से कर दी गयी होती तो बहुत-सी बातें अधिक स्पष्ट हो जातीं। वेदों ने पुराने विचारों को सुरक्षित रखा, और इस तथ्य ने उनकी व्याख्या तथा वे क्यों सुरक्षित रखे गये, यह स्पष्ट करने के निमित्त विशाल टीकाओं की आवश्यकता उत्पन्न कर दी। उनके अर्थ के विलुप्त हो जाने के बाद भी उनसे, पुराने रूपों से, चिपके रहने के कारण अनेक अन्धविश्वासियों की उत्पत्ति हुई। अनेक अनुष्ठानों में ऐसे शब्द दुहराये गये हैं जो कि एक विस्मृत भाषा के अवशेष हैं और जिनका अब कोई सच्चा अर्थ नहीं किया जा सकता। विकासवाद का विचार वेदों में ईसाई युग से बहुत पूर्व पाया जाता है, पर जब तक डारविन ने उसे सत्य नहीं माना, तब तक उसे केवल हिन्दू अन्धविश्वास माना जाता था!
कर्मकाण्ड में बाह्य प्रार्थना और उपासना के सभी रूप सम्मिलित हैं।
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