धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
जब मनुष्य संसार की पर्याप्त ठोकरें खा चुकता है, तब वह मुक्ति-प्राप्ति की इच्छा के प्रति जाग्रत होता है और पार्थिव अस्तित्व के निरानन्द चक्र से बचने के साधनों को खोजता हुआ वह ज्ञान खोजता है, इस बात को जान जाता है कि वह वस्तुत: क्या है और मुक्त हो जाता है। उसके बाद वह संसार को एक विशाल यन्त्र के रूप में देखता है, किन्तु उसके चक्कों से अपनी अँगुलियों को बाहर रखने के प्रति काफी सावधान रहता है। जो मुक्त है, उसके लिए कर्तव्य समाप्त हो जाता है। मुक्त प्राणी को कौन शक्ति विवश कर सकती है? वह शुभ करता है, क्योंकि यह उसका स्वभाव है, न कि इसलिए कि कोई काल्पनिक कर्तव्य उसे आदेश देता है। यह उन पर लागू नहीं होता, जो कि अब भी इन्द्रियों के बन्धन में हैं। यह मुक्ति उसी के लिए है जो अपने निरन्तर अहं से ऊँचा उठ चुका है। वह अपनी आत्मा में ही प्रतिष्ठित है, कोई नियम नहीं मानता, स्वतन्त्र और पूर्ण है। उसने पुराने अन्धविश्वासों को उच्छिन्न कर डाला है। वह चक्र के बाहर निकल आया है। प्रकृति तो हमारे अपने स्व का दर्पण है। मनुष्य की कार्यशक्ति की एक सीमा है, किन्तु कामनाओं की नहीं; इसलिए हम दूसरों की कार्यशक्ति को हस्तगत करने का प्रयत्न करते हैं और स्वयं काम करने से बचकर उनके श्रम के फल का उपभोग करते हैं। हमारे निमित्त कार्य करने के लिए यन्त्रों का आविष्कार कल्याण की मात्रा में वृद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि कामना की तुष्टि में हम केवल कामना ही पाते हैं, और तब अधिक तथा और भी अधिक की अनन्त कामना करते हैं। अतृप्त कामनाओं से भरे हुए मरने पर, उनकी परितुष्टि की निरर्थक खोज में बारम्बार जन्म लेना पड़ता है। हिन्दू कहते हैं कि मानव-शरीर पाने के पूर्व हम 80 लाख बार शरीर धारण कर चुके हैं। ज्ञान कहता है, 'कामना का हनन करो और इस प्रकार उससे छुटकारा पाओ'। यही एकमात्र मार्ग है। सभी प्रकार की कारणता को निकाल फेंको और आत्मा का साक्षात्कार करो। केवल मुक्ति ही सच्ची नैतिकता उत्पन्न कर सकती है। यदि कारण और कार्य की एक अनन्त शृंखला मात्र का ही अस्तित्व होता तो निर्वाण हो ही नहीं सकता था। वह तो इस शृंखला से जकड़े आभासी अहं का उच्छेद करना है। यही है वह जिससे मुक्ति का निर्माण होता है और वह है कारणता के परे जाना।
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