धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
हमारा वास्तविक स्वरूप शुभ है, मुक्त है, विशुद्ध सत् है, जो न तो कभी अशुद्ध हो सकता है और न अशुद्ध कर सकता है। जब हम अपनी आँखों और मस्तिष्क से ईश्वर को पढ़ते हैं तो हम उसे यह या वह कहते हैं, पर वास्तव में केवल एक है, सभी विविधताएँ उसी एक की हमारी व्याख्या हैं। हम 'हो' कुछ भी नहीं जाते, हम अपनी वास्तविक आत्मा को पुन: प्राप्त करते हैं। बुद्ध के द्वारा दुःख को 'अविद्या और जाति' (असमता) के फल से उत्पन्न मानने के निदान को वेदान्तियों ने अपना लिया है; क्योंकि वह अब तक ऐसे किये गये प्रयत्नों में सर्वोत्कृष्ट है। उससे मनुष्यों में इस महानतम व्यक्ति की आश्चर्यजनक अन्तर्दृष्टि व्यक्त होती है। तो हम सब वीर और सच्चे बनें। जो भी मार्ग हम श्रद्धापूर्वक अपनायें निश्चय ही मुक्ति की ओर से जायगा। शृंखला की एक कड़ी पकड़ लो और धीरे-धीरे क्रमश: पूरी शृंखला अवश्य आती जाएगी। पेड़ की जड़ को जल देने से पूरे पेड़ को जल मिलता है, हर पत्ती को जल देने में समय खराब करने से कोई लाभ नहीं। अर्थात् हम प्रभु को खोजें और उसे पाकर हम सब पा जाएँगे। गिरजे, सिद्धान्त, रूप ये सब तो धर्म के सुकुमार पौधे की रक्षार्थ झाड़ियों के घेरों के सदृश हैं, किन्तु आगे चलकर उनको तोड़ना ही पड़ेगा, जिससे वह छोटा पौधा पेड़ बन सके। इस प्रकार विभिन्न धार्मिक सम्प्रदाय, धर्मग्रन्थ, वेद और धर्म-शास्त्र इस छोटे पौधे के केवल 'गमले' मात्र हैं; किन्तु उसे गमले से निकालना और संसार को भरना ही होगा।
जैसे हम अपने को यहाँ अनुभव करते हैं, वैसे ही सूर्य और नक्षत्रों में अनुभव करना हमें सीखना चाहिए। आत्मा तो देशकाल से परे है, हर देखनेवाली आँख मेरी है, प्रभु की स्तुति करनेवाला प्रत्येक मुख मेरा मुख है, हर पापी मैं हूँ। हम कहीं भी परिसीमित नहीं हैं, हम शरीर नहीं हैं। विश्व हमारा शरीर है। हम तो केवल वह शुद्ध स्फटिक हैं, जो अन्य सभी को प्रतिबिम्बित करता है, किन्तु स्वयं सदैव वही रहता है। हम तो जादूगर हैं जो जादू के डण्डे हिलाते हैं और इच्छानुसार अपने समक्ष दृश्य प्रस्तुत कर लेते हैं, किन्तु हमें इन आभासों के पीछे जाना है और आत्मा को जानना है।
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