धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
कवि कहता है कि 'कल्पना सत्य की स्वर्णाच्छादित छाया' है। आभ्यन्तर जगत्, सत्य जगत् बाह्य से असीम रूप से बड़ा है। बाह्य जगत् तो वास्तविक जगत् का छायात्मक प्रक्षेप मात्र है। जब हम 'रस्सी' देखते हैं, 'सर्प' नहीं देखते; और जब 'सर्प' होता है, 'रस्सी' नहीं होती; दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं हो सकता। इसी प्रकार जब हम संसार देखते हैं, हम आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाते, वह केवल एक बौद्धिक कल्पना रहती है। ब्रह्म के साक्षात्कार में व्यक्तिगत अहं और संसार की सब चेतना नष्ट हो जाती है। प्रकाश अन्धकार को नहीं जानता, क्योंकि उसका प्रकाश में कोई अस्तित्व नहीं है; इसी प्रकार ब्रह्म ही सब है। जब हम किसी ईश्वर को मानते हैं तो वास्तव में वह हमारी अपनी आत्मा ही होती है, जिसे हम अपने से पृथक् कर देते हैं और उसकी इस प्रकार पूजा करते हैं, जैसे कि वह हमसे बाहर हो; किन्तु वह सदैव हमारी अपनी आत्मा ही होती है, तथा वही एक और अद्वितीय ईश्वर है। पशु का स्वभाव, जहाँ वह है, वहीं रहने का है; मनुष्य का शुभ खोजने और अशुभ से बचने का, और ईश्वर का न तो खोजने का और न बचने का, अपितु सदैव आनन्दमय रहने का है। आओ, हम ईश्वर बनें, हम अपने हृदय महासागर जैसे बनायें, ताकि हम संसार की छोटी-छोटी बातों से परे जा सकें और उसे केवल एक चित्र की भांति देखें। तब हम इससे बिना किसी प्रकार प्रभावित हुए इसका आनन्द ले सकेंगे। संसार में शुभ को क्यों खोजें, हम वहाँ क्या पा सकते हैं? सर्वोच्च वस्तुएँ जो वह दे सकता है, उन काँच की गोलियों के समान हैं, जो बच्चे कीचड़ के पोखरे में खेलते हुए पा जाते हैं। वे उन्हें फिर खो देते हैं और तब नये सिरे से उन्हें अपनी खोज प्रारम्भ करनी होती है।
असीम शक्ति ही धर्म और ईश्वर है। यदि हम मुक्त हों, तभी हम आत्मा हैं; अमरता केवल तभी है, जब कि हम मुक्त हों; ईश्वर तभी है, जब वह मुक्त हो। जब तक हम अहं भाव द्वारा निर्मित संसार का त्याग नहीं करते, हम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रविष्ट नहीं हो सकते। न तो कभी कोई प्रविष्ट हुआ, न कोई कभी होगा।
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