धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
संसार के त्याग का अर्थ है, अहं भाव को पूर्णतया भूल जाना, उसे बिल्कुल न जानना; शरीर में रहना, पर उसके द्वारा शासित न होना। इस दुष्ट अहं भाव को अवश्य ही मिटाना होगा। मनुष्य जाति की सहायता करने की शक्ति उन शान्त व्यक्तियों के हाथ में हैं, जो केवल जीवित हैं और प्रेम करते हैं तथा जो अपना व्यक्तित्व पूर्णत: पीछे हटा लेते हैं। वे 'मेरा' या 'मुझे' कभी नहीं कहते, वे दूसरों की सहायता करने में, उपकरण बनने में ही धन्य हैं। वे पूर्णतया ईश्वर से अभिन्न हैं, न तो कुछ माँगते हैं और न सचेतन रूप से कोई काम करते हैं। वे सच्चे जीवन्मुक्त हैं, पूर्णत: स्वार्थरहित; उनका छोटा व्यक्तित्व पूर्णतया उड़ गया होता है, महत्वाकांक्षा का अस्तित्व नहीं रहता। वे व्यक्तित्वरहित पूर्णतया तत्व मात्र हैं। जितना अधिक हम छोटे-से अहं को डुबाते हैं, उतना ही अधिक ईश्वर आता है। आओ, हम इस छोटे-से अहं से छुटकारा लें और केवल बड़े अहं को अपने में रहने दें। हमारा सर्वोत्तम कार्य और सर्वोच्च प्रभाव तब होता है, जब हम अहं के विचार मात्र से रहित हो जाते हैं। केवल निष्काम लोग ही बड़े-बड़े परिणाम घटित करते हैं। जब लोग तुम्हारी निन्दा करें तो उन्हें आशीर्वाद दो। सोचो तो, वे झूठे अहं को निकाल बाहर करने में सहायता देकर कितनी भलाई कर रहे हैं। यथार्थ आत्मा में दृढ़ता से स्थिर होओ, केवल शुद्ध विचार रखो और तुम उपदेशकों की एक पूरी सेना से अधिक काम कर सकोगे। पवित्रता और मौन से शक्ति की वाणी निकलती है।
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