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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


नवम प्रवचन

अभिव्यक्ति अनिवार्य विकृति है, क्योंकि आत्मा केवल 'अक्षर' से व्यक्त की जा सकती है और जैसा कि सन्त पाल ने कहा था, 'अक्षर' हत्या कर डालता है। अक्षर केवल प्रतिच्छाया मात्र है, उसमें जीवन नहीं हो सकता। तथापि 'जाना' जाने के निमित्त तत्त्व को भौतिक जामा पहनाना आवश्यक है। हम आवरण में ही वास्तविक को दृष्टि से खो बैठते हैं और उसे प्रतीक के रूप में मानने के स्थान पर उसी को वास्तविक समझने लगते हैं। यह लगभग एक विश्वव्यापी भूल है।

प्रत्येक महान् धर्मोपदेशक यह जानता है और उससे सावधान रहने का प्रयत्न करता है, किन्तु साधारणतया मानवता अदृष्ट की अपेक्षा दृष्ट की पूजा करने को अधिक उन्मुख रहती है। इसीलिए व्यक्तित्व के पीछे निहित तत्त्व की ओर बारम्बार इंगित करके और उसे समय के अनुरूप एक नया आवरण देने के लिए पैगम्बरों की परम्परा संसार में चली आयी है। सत्य सदैव अपरिवर्तित रहता है, किन्तु उसे एक 'रूपाकार' में ही प्रस्तुत किया जा सकता है, इसलिए समय-समय पर सत्य को एक ऐसा नया रूप या अभिव्यक्ति दी जाती है जिसे मानव जाति अपनी प्रगति के फलस्वरूप ग्रहण करने में समर्थ होती है। जब हम अपने को नाम और रूप से मुक्त कर लेते हैं, विशेषतया जब हमें अच्छे या बुरे, सूक्ष्म या स्थूल, किसी भी प्रकार के शरीर की आवश्यकता नहीं रह जाती, तभी हम बन्धन से छुटकारा पाते हैं। शाश्वत प्रगति शाश्वत बन्धन होगी। हमें समस्त विभेदीकरण से परे होना ही होगा और शाश्वत एकत्व या एकरूपता अथवा ब्रह्म तक पहुँचना ही होगा।

आत्मा सभी व्यक्तियों की एक है और अपरिवर्तनीय है - 'एक और अद्वितीय है।' वह जीवन नहीं है, अपितु वह जीवन में रूपान्तरित कर ली जाती है। वह जीवन और मृत्यु, शुभ और अशुभ से परे है। वह निरपेक्ष एकता है। नरक के बीच भी सत्य को खोजने का साहस करो। नाम और रूप की, सापेक्ष की मुक्ति कभी यथार्थ नहीं हो सकती। कोई रूप नहीं कह सकता 'मैं रूप की स्थिति में मुक्त हूँ।' जब तक रूप का सम्पूर्ण भाव नष्ट नहीं होता, मुक्ति नहीं आती। यदि हमारी मुक्ति दूसरों पर आघात करती है तो हम मुक्त नहीं हैं। हमें दूसरों को आघात नहीं पहुँचाना चाहिए।

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