धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
वास्तविक अनुभव केवल एक होता है, किन्तु सापेक्ष अनुभव अवश्य ही अनेक होते हैं। समस्त ज्ञान का स्रोत हममें से प्रत्येक में है - चींटी में तथा सर्वोच्च देवदूत में। वास्तविक धर्म एक है, सारा झगड़ा रूपों का, प्रतीकों का और दृष्टान्तों का है। सतयुग खोज लेनेवालों के लिए सतयुग पहले से ही विद्यमान है। सत्य यह है कि हमने अपने को खो दिया है और संसार को खोया हुआ समझते हैं। 'मूर्ख! क्या तू नहीं सुनता? तेरे अपने ही हृदय में रात-दिन वह शाश्वत संगीत हो रहा है, सच्चिदानन्द: सोऽहम् सोऽहम्!'
मनोकल्पना को वर्जित करके विचार करना असम्भव को सम्भव बनाना है। हर विचार के दो भाग होते हैं, विचारणा और शब्द, हमें दोनों की आवश्यकता है। जगत् की व्याख्या न तो आदर्शवादी (Idealist) कर पाते है, न भौतिकवादी। इसके लिए हमें विचार और अभिव्यक्ति दोनों को लेना होगा। समस्त ज्ञान प्रतिबिम्बित का ज्ञान है, जैसे हम अपने ही मुख को एक दर्पण में प्रतिबिम्बित देखते हैं। अत: कोई अपनी आत्मा या ब्रह्म को नहीं जान सकता, किन्तु प्रत्येक वही आत्मा है. और उसे ज्ञान का विषय बनाने के लिए, उसे उसको प्रतिबिम्बित देखना आवश्यक है। अदृश्य तत्व के चित्रों का यह दर्शन ही तथाकथित मूर्ति-पूजा की ओर ले जाता है। मूर्तियों या प्रतिमाओं का क्षेत्र जितना समझा जाता है, उससे कहीं अधिक विस्तृत है। लकड़ी और पत्थर से लेकर वे ईसा या बुद्ध जैसे महान् व्यक्तियों तक फैली हैं।
भारत में प्रतिमाओं का प्रारम्भ बुद्ध द्वारा एक वैयक्तिक ईश्वर के विरुद्ध किए गए अनवरत प्रचार का परिणाम है। वेदों में प्रतिमाओं की चर्चा भी नहीं है, किंतु स्रष्टा और सखा के रूप में ईश्वर के लोप की प्रतिक्रिया ने महान् धर्मोपदेशकों की प्रतिमाएँ निर्मित करने का मार्ग दिखलाया और बुद्ध स्वयं मूर्ति बन गये, जिनकी करोड़ों लोग पूजा करते हैं।
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