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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


इस समय तक लाखों की संख्या में राक्षस पाताल देश से लंका राज्य में और भारत के दक्षिण पार्श्व में आकर रहने लगे थे। वे लूटमार मचाते हुए कभी-कभी विन्ध्याचल पर्वत तक चले जाते थे।

इस बात को मायावी पसन्द नहीं करता था। उसने एक दिन दशग्रीव से कहा, ‘‘श्रीमान्! यदि देवलोक विजय करना है तो लंका और देवलोक के मध्यवर्ती क्षेत्रों से शत्रुता नहीं करनी चाहिए।’’

‘‘मैं तो पूर्ण भूमण्डल पर राज्य स्थापित करना चाहता हूँ।’’

‘‘हाँ, यह ठीक है। परन्तु महाराज, यह नीति है कि सुगमता से पराजित होने वाले को पहले विजय करना चाहिये। उसको अपना सहायक बना फिर प्रबल राज्य पर आक्रमण करना ठीक रहेगा।’’

‘‘कौन दुर्बल है और कौन प्रबल राज्य है?’’

विन्ध्याचल के पार कौशल राज्य इस समय महान बल का स्वामी है। उससे टक्कर लेने से पहले अपनी शक्ति प्रबल करने के लिये दुर्बल, परन्तु धनी को अपना सहायक बना लेना चाहिये। कम-से-कम उसे शत्रु पक्ष में जाने का अवसर नहीं देना चाहिये।

‘‘देवता दुर्बल हैं, वे स्वामी हैं, अपनी अप्सराओं के बाहुल्य के कारण विषय-रत हैं और अभिमानी हैं। इनके विपरीत उत्तरी भारत के आर्य एक निश्चित धर्म-व्यवस्था के अनुसार व्यवहार करते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बलवान और बुद्धिमान बन रहे हैं।

‘‘इसके अतिरिक्त देवलोक स्वर्ग समान सुन्दर देश है। उस पर राज्य पा जाना अत्यन्त सौभाग्य की बात है।’

मायावी ने देवलोक के कुछ स्थानों का वर्णन इतनी लुभायमान भाषा में किया कि दशग्रीव के मन में यह लालसा उत्पन्न हो गयी कि देवलोक विजय होना चाहिये। विजय से पूर्व वह इसे देखना चाहता था।

एक दिन उसने अपने नाना वाला विमान लिया और देवलोक-दर्शन के लिये चल पड़ा।

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