उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
अपने पिता के आश्रम से उड़ान करता हुआ वह अमरावती, यमपुरी, कैलाश पर महादेव शिवजी के निवास-स्थान की शोभा देखता हुआ वह विचर रहा था कि उसे कैलाश पर्वत के चरणों में एक बहुत ही सुन्दर नगरी उद्यानों और पुष्करणियों से सुशोभित दिखायी दी। वह इस सुन्दर नगरी को देख इस पर मोहित हो गया। उसने अपना विमान एक निर्जन स्थान पर उतारा और उस सुन्दर नगर की शोभा देखने लगा।
विशाल उद्यान, सुन्दर पुष्करणियाँ, पुष्प-वाटिकायें भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्यों से चहल-पहल युक्त प्रशस्त मार्ग और ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें देखता हुआ दशग्रीव घूम रहा था कि उसे एक उद्यान में कुछ ललनायें मधुर संगीत और नृत्य करती दिखायी दे गयीं। वह उनको देखने खड़ा हो गया। आते-जाते अन्य लोग भी उनको देखते और फिर चल देते थे। दशग्रीव तो उनके नृत्य पर इतना मुग्ध हुआ कि वही खड़ा रह गया।
उस स्थान से कुछ अन्तर पर एक अति विशाल उच्च प्रासाद बना था। नृत्य-संगीत के उपरान्त सब स्त्रियाँ उसी अट्टालिका की ओर जा रही थीं कि दशग्रीव ने आगे बढ़ एक युवती से पूछ लिया, ‘‘यह किसका स्थान है?’’
वह स्त्री विस्मय में प्रश्नकर्त्ता का मुख देखने लगी। दशग्रीव ने कह दिया, ‘‘मैं परदेशीय व्यक्ति हूँ। अपने विमान में भूमण्डल का भ्रमण कर रहा हूँ। इस कारण इस सुन्दर स्थान को देख यहाँ उतर पड़ा हूँ।
‘‘यह नगर बहुत ही सुन्दर और मनोहर प्रतीत हुआ है। उसमें आपके इस स्वच्छन्द नृत्य ने तो मुझे आप सबका अनुचर बनने की प्रेरणा दी है।’’
जब दशग्रीव इस युवती से प्रश्न कर रहा था तो अन्य नृत्य करने वाली स्त्रियाँ भी वहाँ एकत्रित हो उन दोनों की बात सुनने लगी थीं। उस युवती ने उस स्थान का परिचय दे दिया, ‘‘यह अल्कापुरी है। ऋषि विश्रवा के पुत्र वैश्रवण ने इसे बसाया है। वह एक समय भूमण्डल की एक सुन्दर नगरी लंका पर राज्य करते थे। वहाँ से अपने पिता का आदेश पाकर उन्होंने वह नगरी अपने छोटे भाई को दे दी है और अब यहाँ इस नगरी को बसाया है।’’
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