उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘और देखिये, अमृतजी! अब भारत के प्रधान मन्त्री पण्डित नेहरू नहीं है।’’
‘‘परन्तु शास्त्री तो नेहरूजी से भी नरम स्वभाव के व्यक्ति हैं। यह भी गांधीजी के भक्त हैं।’’
‘‘परन्तु यह शास्त्री हैं। यदि इन्होंने शास्त्र, मेरा मतलब है कि गीता को कुछ भी पढ़ा होगा तो युद्ध हो जायेगा।’’
‘‘तो छुट्टी नहीं मिल सकती?’’
‘‘बहुत कठिन है। इस पर भी कार्यालय में चलकर ही...।’’
इस समय टेलीफोन की घण्टी बजी। कुलवन्त ने लपक कर टेलीफोन उठाया। उसने सुना और चोंगा रखकर अमृत को कहा, ‘‘जल्दी करो। तैयार हो जाओ। ड्यूटी पर आधे घण्टे में रिपोर्ट करने की आज्ञा है।’’
‘‘तो हो गयी?’’
‘‘ऐसा ही प्रतीत होता है।’’
कुलवन्त कपड़े पहनने अपने शयनागार में चला गया और अमृत नीचे को भागा।
गरिमा पति से पहले जागी थी और अपनी बहन महिमा से बैठी बातें कर रही थी। उसको वहाँ आया देख ही अमृत ऊपर गया था। वह समझा था कि कुलवन्तसिंह जाग चुका होगा।
कुलवन्तसिंह रात भी बाबा द्वारा कहीं कथा देर तक पढ़ता रहा था। इस कारण उठने में देर हुई थी।
गरिमा ने देखा कि दीदी अति प्रफुल्ल-बदन बैठी अपनी सितार बजा रही है। गिरमा ने उसके समीप बैठ सुनना आरम्भ कर दिया। महिमा ने उसकी ओर देखा तो गरिमा खिलखिलाकर हँस पड़ी।
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