उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘किसलिये हँसी हो, गरिमा?’’
‘‘कितने वर्ष के उपरान्त सितार बजाना याद आया है?’’
‘‘जब से बाबाजी का देहान्त हुआ है, इसे हाथ नहीं लगाया था। आज स्नानादि से निवृत्त होकर आयी तो विचार करने लगी थी कि क्या करूँ? पढ़ने को चित्त नहीं किया। अतः सितार निकाल स्वर करने लगी और फिर यह बजने लगी।’’
‘‘मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे कारण जो दीदी और जीजाजी में वैमनस्य उत्पन्न हुआ था, वह आज मिट गया है।’’
‘‘परन्तु यह वैमनस्य तुम्हारे कारण नहीं हुआ था।’’
‘‘दीदी! मैं जानती हूँ कि तुम्हारे मन में कुछ नहीं था, परन्तु जीजाजी ने तो कश्मीर जाकर भी मुझे बुलाया था।’’
‘‘छोड़ो इस बात को। आशा है कि अब वह तुम्हें नहीं बुलायेंगे।’’
‘‘अब क्या बुलायेंगे? अब तो मैं दो बच्चों की माँ हूँ और बूढ़ी हो गयी हूँ।’’
‘‘पर दो बच्चों की मातायें बूढ़ी होती है?’’
‘‘और क्या? वह नीम्बू जिसका रस निचोड़ा जा चुका हो।’’
‘‘यह काल की गति है।’’
‘‘पर दीदी! यह हुआ कैसे? कल सुबह तक तो तुम कह रही थीं कि सुलह हो नहीं सकती।’’
‘‘माताजी परसों रात बिस्तर में मुख छुपाये रोती रही थीं और सिसकियाँ लेती रही थीं। उनका प्रभाव सुषुप्त मन पर हुआ था। इसी के परिणामस्वरूप मैंने अपने व्यवहार को नरम कर देने का विचार बना लिया था।
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