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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘कल मैं स्कूल जाने तक आशंका करने लगी थी कि तुम्हारे जीजा कहीं पुनः लापता हो गये तो माताजी जीवन-भर मुझे कोसती रहेंगी।

‘‘कल मध्याह्न की छुट्टी के समय वह स्कूल में आये। चपरासी ने मुझे बताया कि एक व्यक्ति मुझे मिलना चाहता है। मैं उठी और द्वार पर आयी तो भौंचक्क उनको देखती रह गयी। वह कहने लगे, ‘‘महिमा जी! आधे दिन की छुट्टी नहीं हो सकती क्या?’’

‘‘क्या होगा छुट्टी से?’’

‘‘यह मेरे साथ चलिये तो बताऊँगा।’’

‘‘मुझे कुछ ऐसा समझ आया कि वह निश्चयात्मक बुद्धि से कुछ कहने वाले है। मेरे मन में रात माताजी का रोना स्मरण आने लगा था। इस कारण मैने कहा, ‘‘ठहरिये। मैं प्रबन्ध करके आती हूँ।’’

‘‘मैं अपने अधीन एक अध्यापिका निर्मला से कहने गयी तो वह मेरा पीत मुख देख पूछने लगी कि क्या बात है?’’

‘‘मैंने बताया, ‘‘तुम्हारे जीजाजी आये हैं।’

‘तो सुलह करने जा रही हो?’ उसने पूछा।

‘‘मेरा कहना था कि मन नहीं मान रहा। वह मेरा पूर्ण-इतिहास जानती है। उसने कान में कहा, ‘मान जाओ। सुख पाओगी। आज मुहूर्त्त बहुत अच्छा है।’

‘‘मेरी हँसी निकल गयी। मैं आयी। उक्त पृष्ठ-भूमि को मन में लिये हुए हम एक टैक्सी में छावनी में गये। उसने एक क्वार्टर खोल मुझे कहा, ‘यह घर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।’

‘‘एक घण्टा-भर हम वहाँ रहे। तदनन्तर हम दोनों माताजी को अपनी सुलह का शुभ सन्देश बताने चले आये।’’

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