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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास


‘‘देखिये, धनाध्यक्षजी! आप अपनी मूर्खतापूर्ण भूलों के लिये देवलोक को युद्ध में घसीटना चाहते हैं। यह नहीं होगा।’’

इन्द्र के निराशाजनक कथन से सब देवता निरुत्साह हो रहे थे। ब्रह्मा देवताओं से ऐसी ही आशा करता था। इस सब दुर्घटना का उसने विश्लेषण कर दिया। ब्रह्या का कहना था, ‘‘वास्तविक बात यह है कि इस समय देवताओं में कोई नहीं जो दशग्रीव से युद्ध कर सके। कुबेर क्या और इन्द्र क्या, सब अपनी दुर्बलता को छुपाने के लिये युक्तियाँ दे रहे हैं। ये वास्तव में युक्तियाँ नहीं हैं, प्रत्युत ये अपनी दुर्बलता छुपाने के लिये कुतर्क हैं।

‘‘एक काल था जब देवता अपने को भूमण्डल में धर्म और न्याय के संरक्षक मानते थे। तब मानव-समाज एक थी। मानव-नियम एक थे और उनका उल्लंघन मानव अधिकारों का हनन माना जाता था। देवता अपने को मानवों के नेता समझ जहाँ कहीं भी मानव रहते थे, उनकी रक्षा के लिये आगे चले आते थे। लोकपालों की प्रथा का यही अर्थ था।

‘‘अब तो तुम्हारे अपने देश में आकर भी एक बलात्कार कर चला जाता है और तुम उसको दण्ड देने की सामर्थ्य नहीं रखते और अपनी असमर्थता को प्रकट करने के लिये एक-दूसरे को कोस रहे हैं।

‘‘नकलूबर ने दशग्रीव को शाप दे दिया है। परन्तु यह दुर्बलात्माओं का व्यवहार है। अपने पर अत्याचार होने पर वे दूसरों को गाली ही दे सकते हैं।

‘‘मैं तुम सबके दोषों को जानता हूँ। इसलिये कहता हूँ कि दशग्रीव तुम्हारे मान का नहीं है। इस कारण अब तुम ऐसा प्रयत्न करो कि जिससे तुम्हारी रक्षा कोई दूसरा कर सके।

‘‘मुझे यह पता चला है कि कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या में एक यज्ञ किया जा रहा है। वहाँ का राजा दशरथ पुत्र की कामना करता हुआ पुत्रेष्टि-यज्ञ कर रहा है। यहाँ आश्वनी कुमार बैठे हैं। उनको चाहिये कि महाराज दशरथ की इसमें सहायता कर दें।

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