उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
अतः उसने अपने पुत्र को बुला लिया। धनाध्यक्ष माँ की कुटिया में आया तो वहाँ विमाता को भी बैठे देख विस्मय में दोनों के चरण-स्पर्श कर हाथ जोड़ सामने खड़ा हो गया।
रोहिणी ने कहा, ‘‘कुबेर! मुझे ज्ञात हुआ है कि ब्रह्याजी की सम्मति से यह निश्चय किया गया है कि महाराज दशरथ के घर में तुम्हारे भाई दशग्रीव की हत्या करने में समर्थ पुत्र उत्पन्न किया जाये।’’
‘‘हाँ, माताजी! उसने शिष्ट-जनों के सब व्यवहार का उल्लंघन कर दिया है। वह युवा है, बलवान है और अमिट साहस रखने वाला जीव है। इस कारण इन सब गुणों में उससे श्रेष्ठ वीर योद्धा तैयार करने का आयोजन है।’’
‘‘यह ठीक है। उनको ऐसा करना ही चाहिये। परन्तु मैं यह चाहती हूँ कि तुम बड़े हो, विद्वान्, बुद्धिमान, दयालु और परिवार वालों से स्नेह रखने वाले हो। तुम्हें अपने परिवार के भूल कर रहे सदस्य को समझाना चाहिये। मेरी यह कामना है कि तुम उसे अपने व्यवहार को सुधारने की सीख दो।’’
‘‘परन्तु माताजी! वह मानेगा नहीं।’’
‘‘नहीं मानेगा तो उस न मानने का फल पायेगा। तुम्हारा तो कल्याण होगा कि तुमने अपने परिवार के एक प्राणी को दूषित मार्ग पर चलना छोड़ देने की सम्मति दी है।’’
कुबेर मान गया कि वह इस दिशा में यत्न करेगा। उसने अगले ही दिन एक दूत अपने एक पत्र के साथ रावण के पास भेज दिया।
वह दूत कुबेर का पत्र लेकर लंका पहुँचा और विभीषण के पास गया। विभीषण को उसने अपने वहाँ आने का उद्देश्य बताया। विभीषण ने दूत की बात सुन कह दिया, ‘‘धनाध्यक्ष बहुत ही सरलचित्त हैं। उसे ज्ञात होना चाहिये। कि दशग्रीव किसी की बात नहीं मानते।’’
‘‘क्यों?’’
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