उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘और यदि मैं उनकी बात न मानूँ तो?’’
‘‘तो देवता लोग यह यत्न कर रहे हैं कि न केवल आपका जीवन समाप्त कर दिया जाये, वरन् यह भी कि आपका नाम अनन्त काल तक भले लोगों से तिरस्कार और घृणा का पात्र बना रहे।’’
‘‘तो यह तुम मुझे शाप दे रहे हो?’’
‘‘महाराज! इसमें मैं कहाँ से आ गया? मैं तो केवल एक दूत होने के नाते वही कुछ कह रहा हूँ जो कुछ आपके बड़े भाई ने आपको कहने के लिये मुझे भेजा है।’’
‘‘बहुत धृष्टता कर रहे हो तुम। हम इसको सहन नहीं कर सकते।
प्रहस्त! इस व्यक्ति का सिर शरीर से पृथक कर दो।’’
पूर्व इसके कि दूत समझे कि क्या हो रहा है, प्रहस्त ने तुरन्त अपना खड्ग निकाला और दूत का सिर काट डाला।
सब राक्षस लंकाधिपति रावण की जय-जयकार कर उठे और विभीषण एक ही शब्द और कहे बिना वहाँ से चला गया।
इसके अगले दिन दूत का सिर एक कपड़े के थैले में लिपटा हुआ धनाध्यक्ष के निवास-स्थान में आ गिरा। कुबेर दूत के सिर को पहचान सब समझ गया। उस सिर को लेकर कुबेर अपनी विमाता के पास जा पहुँचा और सिर दिखाकर बता दिया कि यह उस दूत का सिर है जिसे मैंने आपका सन्देश देकर दशग्रीव के पास भेजा था।
कैकसी चुप कर रही।
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