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उपन्यास >> परम्परा

परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9592

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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास

2

इस दूत की हत्या के उपरान्त रावण की सभा में इस कृत्य की देवलोक में प्रतिक्रिया पर विचार होने लगा। प्रहस्त का कहना था, ‘‘महाराज! देवता इसका प्रतिशोध लेंगे।’’

‘‘वे नपुंसक मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।’’

‘‘वे लंका पर आक्रमण तो कर सकते हैं।’’

‘‘अब उसमें विष्णु जैसा शौर्यवान कोई नहीं है।’’

‘‘परन्तु महाराज! एक महापुरुष के अभाव में सौ सामान्य व्यक्ति मिलकर उसके समान कार्य तो कर ही सकते हैं।’’

प्रहस्त के इस कथन पर रावण ने पूछ लिया, ‘‘तो फिर आप क्या चाहते हैं? मैं क्या करूँ? मन्त्री प्रहस्त ही बतायें।’’

प्रहस्त ने कह दिया, ‘‘महाराज! मेरा यह कहना है कि युद्ध अपने राज्य में नहीं होना चाहिये। शत्रु के घर में जाकर लड़ना ठीक है। इस कारण देवलोक पर आक्रमण कर देना चाहिये।

‘‘युद्ध तो अब होगा। इस कारण मेरी सम्मति यह है कि एकाएक देवलोक पर आक्रमण कर दिया जाये।’’

यह तो रावण के मन की बात थी। अतः उसने कहा, ‘‘तो तैयारी कर दो।’’

बस फिर क्या था। रण-भेरी बजा दी गयी और काले बादलों की भाँति कृष्ण वर्ण राक्षसों की अपार सेना देवलोक की ओर उमड़ पड़ी। रावण अपने लड़के मेघनाथ को लेकर सेनानायक बन दो मास में देवलोक में जा पहुँचा।

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