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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


111. जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है, उतना ही अधिक मुझे लगता है कि पौरुष में सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सन्देश है।

112. यूरोपवालों के द्वारा नरभक्षी वृत्ति के इस तरह उल्लेख को कि जैसे वह कुछ समाजों के जीवन का सामान्य अंग ही हो, लक्षित करते हुए स्वामीजी ने कहा, ''यह सत्य नहीं है! किसी भी जाति ने धार्मिक बलिदान, युद्ध अथवा प्रतिशोध के अतिरिक्त कभी भी नरमांस भक्षण नहीं किया। क्या तुम नहीं देखते? वह यूथचारी प्राणियों में हो ही नहीं सकती। वह तो सामाजिक जीवन का ही मूलोच्छेदन कर देगी।''

113. यौन-प्रेम तथा सृष्टि! ये ही अधिकांश धर्मों की जड में है। उन्हें भारत में वैष्णव धर्म और पश्चिम में ईसाई मत कहते हैं। मृत्यु अथवा काली की उपासना का साहस करनेवालो की संख्या कितनी कम है! आओ, हम मृत्यु की उपासना करें। आओ, हम कराल को आलिंगन में बाँध लें, इसलिए कि वह कराल है! हम यह न कहें कि वह शान्त हो जाय। आओ, आपदा को आपदा के ही निमित्त स्वीकार करें।

114. पाँच सौ वर्ष धर्ममार्ग के, पाँच सौ वर्ष प्रतिमाओं के तथा पाँच सौ वर्ष तन्त्रों के, ये बौद्धमत के तीन चक्र थे। पर यह न समझो कि भारत में कभी बौद्ध नामक धर्म भी था, जिसके अपने मन्दिर और पुरोहित थे! ऐसा कुछ न था। यह सब तो सदैव धर्म के ही अन्तर्गत था। केवल एक समय बुद्ध का प्रभाव सर्वोपरि हुआ, और तभी सारी जाति मठ-प्रेमी बन गयी।

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