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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


115. सनातनियों का सारा आदर्श समर्पण है। तुम्हारा आदर्श संघर्ष है। फलत. हमीं लोग जीवन का आनन्द उठा सकते हैं, तुम लोग कदापि नहीं! तुम हमेशा अपनी दशा को और अच्छे रूप में परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट रहते हो, और एक करोडवें अंश मात्र का परिवर्तन सम्पन्न होने के पहले ही मर जाते हो। पश्चिम का आदर्श क्रियाशील रहना है, पूर्व का आदर्श सहन करना है। पूर्ण जीवन क्रियाशीलता और सहनशीलता का समन्वय है। पर वह कभी नहीं हो सकता। हमारे पन्थ में यह स्वीकार किया गया है कि मनुष्य की सभी इच्छाओं की पूर्ति सम्मव नहीं है। जीवन में अनेक बाधाएँ हैं। यह असुन्दर है किन्तु यह प्रकाश और शक्ति के बिन्दुओं को उभारता भी है। हमारे सुधारक केवल कुरूपता को देखते हैं और उसके निराकरण की चेष्टा करते हैं। लेकिन वे उसके स्थान पर कुछ वैसा ही और कुरूप स्थापित कर देते हैं, और नयी रूढ़ि की शक्ति के केन्द्रों के समरूप कार्य करने में हमें पुरानी रूढ़ि के बराबर ही समय देना पड़ता है।

इच्छा परिवर्तन के द्वारा सबल नहीं की जा सकती। वह तो उससे दुर्बल और पराधीन बन जाती है, परन्तु हमें सदैव आत्मसात् करते रहना चाहिए। आत्मसात् करते रहने से इच्छा-शक्ति बल पाती है। संसार मेँ इच्छा- शक्ति ऐसी शक्ति है जिसकी प्रशंसा हम जान या अनजान मे करते हैं। इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति करने के कारण ही सती होनेवाली स्त्री को संसार महान् मानता है। जिस चीज को दूर करने की आवश्यकता है, वह स्वार्थपरायणता है। मैं देखता हूँ कि अपने जीवन में मैंने जब कभी कोई भूल की है तो सदैव ही मूल्यांकन में मेरा 'स्व' सम्मिलित हो गया था। जहाँ पर 'स्व' ने हस्तक्षेप नहीं किया, वहाँ मेरा निर्णय सीधे अभीष्ट पर पहुँच गया। बिना 'स्व' के कोई भी धर्म सम्भव न हो पाता। यदि मनुष्य अपने लिए कुछ न चाहता होता, तो क्या तुम समझते हो कि वह प्रार्थना और उपासना की ओर प्रवृत्त हुआ होता? अरे! वह तो ईश्वर के सम्बन्ध में कभी विचार भी न करता, सिवाय इसके कि वह यदाकदा किसी सुन्दर प्राकृतिक दृश्य आदि को देखकर कुछ थोड़ी प्रशंसा कर देता। वस्तुत. यही तो वह दृष्टि है, जिसे अपनाने की आवश्यकता है। बस, स्तुति और धन्यवाद। काश, हम लोग इस 'स्व' से मुक्ति पाते!

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