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सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


132. भारत मे लड़कियों की शिक्षा की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, ''देवपूजा के निमित्त तुम्हें प्रतिमाओं का प्रयोग करना पड़ेगा ही। परन्तु तुम इन्हें बदल सकते हो। काली का सदैव एक ही स्थिति में रहना आवश्यक नहीं है। अपनी लड़कियों को उसे नये रूपों में चित्रित करने के लिए प्रोत्साहित करो। सरस्वती की सौ भिन्न- भिन्न मुद्राएँ बनाओ। उन्हें अपनी अपनी कल्पनाओं का आरेखन, मूर्तीकरण और चित्रण करने दो।

''पूजागृह मे वेदी की सब से निचली सीढी पर रखा जानेवाला कलश सदैव पानी से भरा हुआ रहना चाहिए और तामिल देश के बड़े-बड़े घृतदीपकों में ज्योति सदैव जलती रहनी चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि अखण्ड पूजा की व्यवस्था हो सके, तो हिन्दू भावना के अनुकूल इससे बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता।

''किन्तु आयोजित अनुष्ठान भी वैदिक ही होने चाहिए। एक वैदिक वेदी का होना आवश्यक है, जिस पर पूजा के समय वैदिक अग्नि जलायी जा सके। नैवेद्य- अर्पण में भाग लेने के लिए बच्चे उपस्थित रहने चाहिए। यह ऐसी धर्म-विधि है जिसे समस्त भारत में आदर प्राप्त है।

''अपने पास सभी प्रकार के पशुओं को रखो। गाय से प्रारम्म करना सुन्दर होगा। किन्तु तुम्हें कुत्ते, बिल्लियाँ, पक्षी और अन्य जीव भी रखना चाहिए। बच्चों को अवसर दो कि वे उन्हें खिलाएँ और उनकी देखभाल कर सकें।

''इसके बाद ज्ञान-यज्ञ है। वह सब से अधिक सुन्दर है। क्या तुम जानते हो कि भारत में प्रत्येक पुस्तक पवित्र है, केवल वेद ही नहीं, अपितु अंग्रेजों और मुसलमानों की भी सभी पुस्तके पवित्र हैं।

''प्राचीन कलाओं को पुनरुज्जीवित करो। अपनी लड़कियों को खोये से फलों के नमूने बनाना सिखाओ। उन्हें कलात्मक पाक-किया और सीना-पिरोना सिखाओ। उन्हे चित्रकला, फोटोग्राफी, सोने, चाँदी, कागज, जरी और कसीदाकारी पर चित्र बनाने की शिक्षा दो। इसका ध्यान रखो कि प्रत्येक को किसी न किसी ऐसी कला का ज्ञान हो जाय, जिसके द्वारा आवश्यकता पड़ने पर वे अपनी जीविका अर्जन कर सकें।

''और मानवता को कभी न भूलो! मानवतावादी मनुष्य-पूजा का भाव भारत में बीज रूप में विद्यमान है, परन्तु इसे कभी विशिष्ट रूप नहीं दिया गया। अपने विद्यार्थियों से इसका विकास करवाओ। इसको काव्य और कला का रूप दो। हाँ, स्नान के बाद और भोजन के पूर्व भिक्षुकों के चरणों पर की गयी दैनिक पूजा हृदय और हाथ दोनों की आश्चर्यजनक शिक्षा होगी। फिर, कभी-कभी बच्चों की पूजा हो सकती है, या स्वयं अपने शिष्यों की। अथवा दूसरे के शिशु माँगकर उन्हें पालो पोसो और उन्हें खिलाओ। माताजी (कलकत्ते की महाकाली पाठशाला की संस्थापिका तपस्विनी माताजी।) ने मुझसे क्या कहा था? 'स्वामीजी! मेरे लिए कोई सहारा नहीं है किन्तु मैं इन पुण्यात्माओं की पूजा करती हूँ और ये मुझे मोक्ष तक पहुँचा देंगी।' तुम देखते हो कि वे अनुभव करती हैं कि वे कुमारी में निवास करनेवाली उमा की सेवा कर रही हैं और यह किसी विद्यालय का प्रारम्भ करने के निमित्त एक अद्भुत भावना है।''

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