धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित सूक्तियाँ एवं सुभाषितस्वामी विवेकानन्द
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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
133. प्रेम सदैव आनन्द की अभिव्यक्ति है। इस पर दुःख की तनिक छाया पड़ना सदैव शरीरपरायणता और स्वार्थपरायणता का चिह्न है।
134. पश्चिम विवाह को, विधिमूलक गठबन्धन के बाहर जो कुछ है, उन सब से युक्त मानता है, जब भारत में इसे समाज के द्वारा दो व्यक्तियों को शाश्वत काल तक संयुक्त रखने के लिए उनके ऊपर डाला हुआ बन्धन माना जाता है। उन दोनों को एक दूसरे को जन्म-जन्मान्तर के लिए वरण करना होगा, चाहे उनकी इच्छा हो या न हो। प्रत्येक एक दूसरे के आधे पुण्य का भागी होता है। यदि एक इस जीवन में बुरी तरह पिछड़ जाता है तो दूसरे को, जब तक कि वह फिर बराबर नहीं आ जाता, केवल प्रतीक्षा करनी पड़ती है, समय देना होता है।
135. अवचेतन और अतिचेतन रूपी महासागरों के मध्य चेतना एक झीना स्तर मात्र है।
136. जब मैंने पश्चिमवालों को चेतना पर इतनी अधिक बातें करते सुना, तो मुझे स्वयं अपने कानों पर विश्वास नहीं हो सका। चेतना? चेतना का क्या महत्व है! क्यों, अवचेतन की अथाह गहराई तथा अतिचेतन की ऊँचाइयों से तुलना करने पर वह कुछ नहीं है। इस सम्बन्ध में मैं भुलावे में नहीं आ सकता, क्योंकि क्या मैने श्रीरामकृष्णदेव की दस मिनिट में व्यक्ति के अवचेतन मन से उसका सारा अतीत जान लेने और उसके आधार पर उसका भविष्य और उसकी शक्तियों का निश्चय करते नहीं देखा हें?
137. ये सब (दिव्य दर्शन आदि) गौण विषय हैं। वे सच्चे योग नहीं हैं। अप्रत्यक्ष रूप से ये हमारे वक्तव्यों की सत्यता की पुष्टि करते हैं, इस कारण इनकी कुछ उपयोगिता हो सकती है। एक छोटी सी झलक भी यह विश्वास प्रदान करती है कि इस स्थूल पदार्थ के पीछे कोई चीज है। किन्तु जो इनके लिए समय देते हैं, वे बड़े खतरे मोल लेते हैं।
ये (योगिक सिद्धियाँ) 'सीमा के प्रश्न' हैं। इनके द्रारा प्राप्त ज्ञान कभी-भी निश्चित और स्थायी नहीं हो सकता। क्या मैंने कहा नहीं कि ये 'सीमा के प्रश्न' हैं? सीमा-रेखा सदैव हटती रहती है!
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