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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


138. अद्वैत की यह मान्यता है कि आत्मा न आती है, न जाती है और विश्व के ये सब लोग अथवा स्तर आकाश और प्राण की भित्र-भिन्न रचनाएँ है। अर्थात् यह सौर मण्डल जिसके अन्तर्गत दृश्य जगत् का निम्नतम अथवा सब से अधिक घनीभूत स्तर है, उसमें प्राण भौतिक शक्ति के रूप में तथा आकाश संवेद्य पदार्थ के रूप में प्रतीत होता है। दूसरा चन्द्र मण्डल कहलाता है, जो सौर मण्डल के चारों ओर है। यह चन्द्रमा नहीं है, बल्कि देवताओं का निवास स्थान है; अर्थात् इसमें प्राण मानसिक शक्तियों के रूप में प्रकट होता है और आकाश तन्मात्राओ अथवा सूक्ष्म कणों के रूप में। इसके परे विद्युत् मण्डल है, अर्थात् एक ऐसी दशा, जो आकाश से अविच्छेद्य है और तुम्हारे लिए यह कहना कठिन है कि विद्युत् शक्ति है अथवा भौतिक तत्व। इसके बाद ब्रह्मलोक है जहाँ न प्राण है और न आकाश, बल्कि दोनों मनोमय कोश अथवा आदि शक्ति में विलीन हो जाते हैं। और यहाँ, न तो प्राण है और न आकाश जीव समस्त विश्व को समष्टि या महत् (अर्थात् मन) के पूर्ण योग के रूप में ग्रहण करता है। यह एक पुरुष, एक अमूर्त विश्वात्मा प्रतीत होता है, किन्तु वह ब्रह्म नहीं है, क्योंकि अब भी अनेकत्व विद्यमान है। अन्त में इससे जीव उस एकत्व का अनुभव करता है, जो लक्ष्य है। अद्वैतवाद कहता है कि ये ही वह दिव्य रूप हैं, जो जीव के सामने क्रमश: उदय होते हैं। वह स्वयं न तो जाता है न आता है और जिस दृश्य को वह वर्तमान काल में देख रहा है, वह भी इसी प्रकार प्रतिबिम्बित हुआ है। प्रक्षेपण (सृष्टि) और प्रलय का उसी क्रम में होना अनिवार्य है, केवल एक का अर्थ है पीछे जाना और दूसरे का बाहर आना।

अब, चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही जगत् को देख सकता है, वह जगत् उसके बन्धन के साथ उत्पन्न होता है और उसकी मुक्ति के साथ चला जाता है, यद्यपि जो बन्धन में है उनके लिए वह बना रहता है। अत: नाम और रूप से विश्व बना है। समुद्र में लहर तभी तक लहर है, जब तक वह नाम और रूप से बँधी हुई है। यदि लहर शान्त हो जाती है, तो समुद्र ही रहता है, किन्तु वह नाम-रूप शीघ्र ही सदैव के लिए अदृश्य होता है। अत: लहर का नाम और रूप उस जल के बिना अस्तित्व नहीं रख सकता, जो उनके (नाम और रूप) द्वारा लहर बना दिया गया था, फिर भी नाम और रूप स्वयं लहर नहीं थे। जैसे ही वह पानी में मिल जाती है, वे नष्ट हो जाते हैं। लेकिन दूसरे नाम और रूप दूसरी लहरों से सम्बन्धित होकर जीवित रहते हैं। इस नाम-रूप को माया कहा गया है और जल ब्रह्म है। लहरें कभी भी जल के अतिरिक्त और कुछ नहीं थी, फिर भी लहरों की अवस्था में उनका नाम और रूप था। फिर, यह नाम और रूप एक क्षण भी लहर से पृथक् नहीं रह सकता, यद्यपि लहर, जल के रूप में शाश्वत काल तक नाम और रूप से पृथक् रह सकती है। परन्तु चूंकि नाम और रूप कभी अलग नहीं किये जा सकते, उनके अस्तित्व को भी नहीं माना जा सकता। फिर भी वे शून्य नहीं हैं। इसे माया कहते हैं।

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