धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित सूक्तियाँ एवं सुभाषितस्वामी विवेकानन्द
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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
139. मै बुद्ध का दासानुदास हूँ। उनके जैसा क्या दूसरा कोई कभी हुआ? - प्रभु - जिन्होंने कभी भी एक कार्य अपने लिए नहीं किया - ऐसा हृदय जो सारी दुनिया को गले लगाता था! इतने करुणामय कि राजकुमार और संन्यासी होते हुए भी एक छोटी सी बकरी को बचाने के लिए अपने प्राण भी दे देते! इतने प्रेमी कि एक बाघिन की भूख मिटाने के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया! एक चाण्डाल का आतिथ्य स्वीकार किया और उसे आशीर्वाद दिया है! जब मैं बालक था, वे मेरे कमरे में आये और मैं उनके चरणों पर गिर पड़ा! क्योंकि मैंने जाना कि वे स्वयं प्रभु ही थे।
140. वे (शुक) आदर्श परमहंस हैं। मनुष्यों में वे ही एक थे, जिन्हें सत्-चित-आनन्द के अखण्ड महासागर से एक चुल्लू भर जल पीने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अधिकांश सन्त तो उसके तट पर उसकी लहरों का गर्जन सुनकर ही जीवन समाप्त कर देते हैं। बहुत थोड़े लोग उसका साक्षात्कार करते हैं और उससे भी कम उसका रसास्वादन करते हैं। किन्तु उन्होंने तो परमानन्द के सागर का रसपान किया।
141. बिना त्याग के भक्ति का विचार कैसा? यह बहुत घातक है।
142. हम न तो दुख की उपासना करते हैं, न सुख की। हम उनमें से किसी के भी द्वारा उन दोनों से परे की स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं।
143. शंकराचार्य ने वेदों की लय को, राष्ट्रीय आरोह-अवरोह को पहचाना था। सचमुच मैं सदैव यह कल्पना किया करता हूँ कि बाल्यकाल में उन्हें भी मेरी भांति कोई ना कोई दिव्यानुभूति अवश्य हुई होगी! और तब उन्होंने उस पुरातन संगीत का पुनरुद्धार किया। कुछ भी हो, उनके समस्त जीवन का कार्य वेदों और उपनिषदों की सुषमा के स्पन्दन के सिवा और कुछ नहीं।
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