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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


144. यद्यपि माँ का प्रेम कुछ नातों में बढ़कर होता है, फिर भी सारी दुनिया स्त्री-पुरुष के प्रेम को उसका (आत्मा और ईश्वर के सम्बन्ध का) प्रतीक मानती है। किसी अन्य भाव में आदर्शीकरण को इतनी विराट् शक्ति नहीं है। प्रियतम की जिस रूप में कल्पना की जाती है, वह सचमुच वही बन जाता है। यह प्रेम अपने पात्र को बदल देता है।

145. क्या जनक बनना इतना सरल है? राजसिंहासन पर पूर्णरूपेण अनासक्त होकर बैठना, धन, यश, पत्नी और सन्तान की कुछ भी परवाह न करना। पश्चिम में न जाने कितने लोगों ने मुझसे कहा कि उन्होंने इस स्थिति को प्राप्त कर लिया है। किन्तु मैं तो केवल यही कह सका, 'ऐसे महान् पुरुष भारतवर्ष में तो जन्म लेते नहीं।

146. स्वयं अपने से यह कहना और बच्चों को यह सिखाना कभी न भूलो कि एक गृहस्थ और संन्यासी मे वैसा ही अन्तर है जैसा कि जुगनू और देदीप्यमान सूर्य में, छोटे से पोखरे और अनन्त सागर में, सरसों के दाने और सुमेरु पर्वत में।
 
147. बहता पानी और रमते योगी ही निर्मल रहते हैं।

148. जो संन्यासी कांचन के बारे में सोचता है, उसकी इच्छा करता है, वह आत्मघात करता है।

141. हमें इसकी क्या चिन्ता कि मुहम्मद अच्छे थे या बुद्ध? क्या इससे मेरी अच्छाई या बुराई में परिवर्तन हो सकता है? आओ, हम लोग अपने लिए और अपनी जिम्मेदारी पर अच्छे बने।

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