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धर्म एवं दर्शन >> सूक्तियाँ एवं सुभाषित

सूक्तियाँ एवं सुभाषित

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9602

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अत्यन्त सारगर्भित, उद्बोधक तथा स्कूर्तिदायक हैं एवं अन्यत्र न पाये जाने वाले अनेक मौलिक विचारों से परिपूर्ण होने के नाते ये 'सूक्तियाँ एवं सुभाषित, विवेकानन्द-साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।


150. इस देश में तुम लोग अपनी व्यक्तिता खोने से बहुत डरते हो। क्यों, तुम लोग तो अभी व्यक्ति भी नहीं बन पाये हो। जब तुम अपने सम्पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लोगे तभी तुम अपना सच्चा व्यक्तित्व प्राप्त कर पाओगे, उसके पूर्व नहीं। जो दूसरी बात मैं इस देश में लगातार सुन रहा हूँ, वह यह है कि हमें प्रकृति के सामंजस्य में रहना चाहिए। क्या तुमको नहीं मालूम कि दुनिया में अब तक जो भी प्रगति हुई है, वह प्रकृति पर विजय पाने के कारण हुई है? अगर हमें कुछ भी उन्नति करनी है, तो हमें प्रत्येक कदम पर प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।

151. लोग कहते हैं कि मुझे भारत में सर्व साधारण को वेदान्त की शिक्षा नहीं देनी चाहिए। किन्तु मैं कहता हूँ कि मैं एक बच्चे को भी इसे समझा सकता हूँ। सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्यों की शिक्षा आरम्भ करने के लिए कोई भी आयु कम नहीं।

152. जितना कम पढ़ो उतना ही अच्छा है। गीता तथा वेदान्त पर अन्य अच्छी पुस्तकों को पढ़ो। बस इसी की तुम्हें आवश्यकता है। वर्तमान शिक्षाप्रणाली पूर्णत: दोषपूर्ण है। चिन्तन-शक्ति का विकास होने के ही पूर्व मस्तिष्क बहुत सी बातों से भर दिया जाता है। मन के संयम की शिक्षा पहले दी जानी चाहिए। यदि मुझे अपनी शिक्षा फिर आरम्भ करनी हो और कुछ भी मेरी चले, तो मैं सर्वप्रथम अपने मन का स्वामी बनना सीखूँगा और तब यदि मुझे आवश्यकता होगी, तो तथ्यों का संग्रह करूँगा। लोगों को सीखने में बहुत देर लगती है, क्योंकि वे अपने मन को इच्छानुसार एकाग्र नहीं कर पाते।

153. 'यदि बुरा समय आता है, तो इससे क्या? दोलक (Pendulum) फिर पीछे जायगा। पर यह भी कुछ अच्छा नहीं है। चाहिए तो यह कि इसे रोक दें।'

154. सब कुछ भय से भरा हुआ है : केवल त्यागशीलता मुक्त है।

155. पाखण्डी साधु और अपने व्रत में असफल होनेवाले भी धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने अपने आदर्श का कुछ दर्शन तो पाया, और इसलिए एक सीमा तक वे दूसरों की सफलता के कारण हैं !

156. हम अपने आदर्श को कभी न भूलें!

।।समाप्त।।

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