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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास

18

जेल की चहारदीवारी के भीतर बंद रमेश को स्वप्न में भी यह आशा न थी कि बाहर उनका विरोधी वातावरण अपने आप ही स्वच्छ हो कर निर्मल हो सकता है। अपनी कैद समाप्त कर, जेल के फाटक से बाहर का दृश्य देख कर विस्मयानंद से उनके दोनों नेत्र विस्फरित हो उठे कि उनके स्वागत के लिए, जेल के फाटक पर लोगों का जमघट खड़ा है। हिंदू-मुसलमानों की भीड़ के आगे विद्यार्थी समुदाय खड़ा है, उनके आगे मास्टर लोग हैं। सबसे आगे, सिर पर चद्दर डाले वेणी बाबू विराजमान हैं।

रमेश को गले से लगाते हुए, भरे गले से वेणी बाबू बोले-'हमारा-तुम्हारा रक्त एक है! उसमें कैसा आकर्षण है! उसे मैंने पहले जान-बूझ कर अपने से दूर रखा था। मैं जानता तो पहले से भी था, पर जबरदस्ती आँखें मूँद रखीं कि रमा भैरव को बरगला कर, अपनी लाज-शर्म ताक पर रख कर, अदालत में तुम्हारे विरुद्ध झूठी गवाही दे कर तुम्हें इस तरह फँसा देगी। मुझे भी भगवान ने इस पाप का खूब दण्ड दिया है! जेल के भीतर तुम्हारा जीवन इन सब बातों से दूर शांति से तो बीता; मैं तो वेदना की आग में निरंतर छह माह तक जलता रहा हूँ।'

रमेश तो इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर स्तब्ध रह गया था। खड़े-खड़े कुछ समझ ही न पा रहे थे कि क्या कहें, क्या करें? स्कूल के हेडमास्टर जी ने तो साष्टांग दण्डवत कर, उनकी चरण-रज माथे पर लगा ली। भीड़ में से आगे बढ़ कर किसी ने आशीर्वाद दिया, किसी ने पैर छुए, किसी ने सलाम किया, किसी ने नमस्कार! वेणी का दिल उमड़ पड़ रहा था। भरे गले से वे फिर बोले -'मुझसे अब न रूठो, भैया! चलो, घर चलो! माँ ने रोते-रोते आँखें फोड़ डाली हैं!!'

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